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साकीनी रामचंद्रैया: एक कलाकार जिसने गीतों में आदिवासी इतिहास को संजोया

आदिवासी कला को संरक्षित करने वाले तेलंगाना आदिवासी कलाकार यानि साकीनी रामचंद्रैया (Sakini Ramachandraih) को पिछले साल यानी 2022 में कला के क्षेत्र में पद्म श्री पुरस्कार से नवाज़ा गया था.

उनको कोया आदिवासियों की पुरानी कला को संरक्षित करने के लिए पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

साकीनी रामचंद्रैया

पद्म श्री से सम्मानित साकीनी रामचंद्रैया का तेलंगाना के भद्राद्रि कोठागुडेम ज़िले के मनुगुरु ब्लॉक के कुनावरम गाँव में पैदा हुए.

कोया आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले रामचंद्रैया का जन्म 1 जनवरी 1963 को हुआ था.

साकीनी रामचंद्रैया तेलंगाना राज्य के मशहूर लोक गायक हैं. अपने गायन के अलावा वे ढ़ोल बजाने में माहिर है. इस आदिवासी कलाकार को “कंचुमेलम-कंचुतलम” कला का विशेषज्ञ माना जाता है.

“कंचुमेलम-कंचुतलम” विशेष रूप से तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में कोया आदिवासी समुदाय की लोकप्रिय कला है.

रामचंद्रैया साकीनी ढोल नाम के ताल वाद्य यंत्र का उपयोग करते हुए एक विशिष्ट शैली में आदिवासी सरदारों के इतिहास को गाने की अद्वितीय क्षमता रखते है.

उनका काम पहली बार साल 2014 में सुर्खियों में आया जब उन्होंने 13वीं सदी में काकतीय शासकों के खिलाफ लड़ने वाली सम्मक्का-सरलाक्का नाम की दो आदिवासी महिलाओं का इतिहास सुनाया था.

सम्मक्का-सरलाक्का मां-बेटी थीं.

कोया आदिवासियो की इस ख़ास कला में माहिर वे आखिरी व्यक्ति है. इसलिए कला को संरक्षित करने में उनके प्रयास बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं.

वैसे साकीनी रामचंद्रैया कभी स्कूल नहीं गए हैं.

उनमें बारह साल की उम्र से ढोल बजाने की कला का जुनून दिखने लगा था. जो शायद उन्हें अपने दादा-दादी से विरासत में मिला.

कोया आदिवासी कलाकारों में अपने गीतों को मौखिक रूप से नई पीढ़ियों को सौंपने की एक महान परंपरा है और साकीनी रामचंद्रैया ने इन गीतों का एक बड़ा संग्रह याद किया है.

जनजातीय कला रूपों के शोधकर्ता और रामचंद्रैया की छिपी प्रतिभा को उजागर करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले जयधर तिरुमला राव(Jayadher Tirumala Rao) के अनुसार यह कोया जनजातियों की एक लुप्त होती कला है.

उन्होंने कहा कि यह एक सुखद आश्चर्य है कि केंद्र ने इस दुर्लभ कला की उपस्थिति को स्वीकार किया है और पद्म श्री पुरस्कार के लिए रामचंद्रैया को चुना है.

जयधर ने यह भी कहा है कि डोली कोया आदिवासियों के लिए एक प्रकार के पुजारी हैं. वे विवाह और अंत्येष्टि जैसे आदिवासी अनुष्ठानों में भाग लेते हैं और गीतों के रूप में अनुष्ठान करते हैं जिसमें उनके इतिहास का वर्णन होता है.

कोया आदिवासियों में अब शायद ही ऐसी कोई डोलियाँ बची हुई हैं और रामचंन्द्रैया ने इस संस्कृति को कायम रखने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं.

कोया आदिवासी

कोया आदिवासी तेलंगाना के सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. कोया आदिवासी गोंड जनजाति का ही एक समूह है.

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