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आदिवासी पहचान: बिहार के रोहतासगढ़ किले के आदिवासी कनेक्शन की तलाश

रांची विश्वविद्यालय (ranchi university) के जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा विभाग (टीआरएल) के 6 शोधकर्ताओं (researchers) की टीम ने बिहार के ऐतिहासिक रोहतासगढ़ किले और इससे जुड़े आदिवासियों के इतिहास के बारे में स्टडी करने का फैसला किया है.

बताया जाता है की इस किले से ओरावँ (oraons) या उराँव समुदाय का अनोखा इतिहास जुड़ा हुआ है. ओरावँ को कुडुख भी कहा जाता है.

16 नवंबर, गुरूवार को रांची विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सरिता कुमारी ने बताया की स्टडी के लिए वे सभी 10 दिन फील्ड में विजिट करने जाएंगे.

ये किला 42 स्क्वायर किलोमीटर फैला हुआ है और इसकी लंबाई 1500 मीटर है. इसे विश्व के सबसे विशाल किलों में से एक माना गया है. ऐसा भी माना जाता है की इस किले में कभी राजा हरिशचंद्र राज करते थे.

लेकिन उनकी मौत के बाद मुगल शासन ने किले पर अपना कब्जा कर लिया.

वहीं ओरावँ आदिवासियों का माना है की कभी उनके पूर्वज इस किले में राज किया करते थे. इसलिए इस किले को ओरावँ समुदाय ने अपना तीर्थ स्थल माना है. यही वजह है की हर साल यहां ओरावँ आदिवासी श्राद्धालुओं के रूप में आते हैं.

इसी सिलसिले में एक स्टडी के द्वारा ये भी दावा है की मुगल शासन के बाद ओरावँ आदिवासी झारखंड के छोटानागपुर में बस गए थे.

रिसर्चर की यह टीम खास तौर पर ओरावँ और अन्य आदिवासियों के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और रोजगार की स्थिति को समझने में मदद करेगी.

इसके अलावा किले का इतिहास, उसके आसपास के इलाके और खासकर ओरावँ आदिवासियों की स्थिति के बारे में रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा. यह कमेटी कुछ सुझाव भी दे सकती है.

ये रिपोर्ट पूरी तरह से तैयार होने के बाद झारखंड और बिहार सरकार को सौंपी जाएगी. ताकि रिपोर्ट में बाताएं गए मुद्दों और सुझावों पर राज्य सरकार द्वारा काम किया जा सकें.

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