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रिवाज़-ए-आम के खिलाफ 70 वर्षीय आदिवासी महिला लड़ रही है

हिमाचल प्रदेश में आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है. इस मामले में बरसों से चली आ रही प्रथा का हवाला दिया जाता है.

हिमाचल प्रदेश के किन्नौर और लाहौल, स्पीति जिलों में यह प्रथा 1926 से प्रचलित है. यह एक जनजातीय प्रथागत कानून है. इसे स्थानीय लोग ‘वाजिब-उल-अर्ज’ या ‘रिवाज़-ए-आम’ कहते हैं. इन दोनों ही नामों का मतलब एक ही है.

रिवाज़-ए-आम एक पितृसत्तात्मक कानून है जो महिलाओं को विरासत का कोई अधिकार नहीं देता है. इसके अनुसार पूरी पैतृक संपत्ति परिवार के पुरुष सदस्यों के पास जाती है.

ऐसे में 70 वर्षीय रतन मंजरी नेगी हिमाचल प्रदेश के किन्नौर इलाके की महिलाओं की उम्मीद हैं.

मंजरी अपनी साथी महिलाओं के उन अधिकारों के लिए लड़ रहीं जिन्हें मानने से कानून ने मना कर दिया है.  

आदिवासी रीति-रिवाजों द्वारा महिलाओं के अधिकार को अस्वीकार्य करार दे दिया गया है.

रतन मंजरी नेगी 70 वर्ष की उम्र में हिमाचल प्रदेश की बर्फ से लदी पहाड़ी घाटियों में आदिवासी औरतों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए पथरीले रास्तों पर मीलों चलती हैं.

अविवाहित बेटियों और विवाहित महिलाओं को उनके पूर्वजों की संपत्ति में समान अधिकार दिलाने के लिए कानून में बदलाव की मांग को लेकर वह 50 से अधिक वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहीं हैं.

इस लंबी लड़ाई के कारण मशहूर रतन मंजरी नेगी कर्नल पीएन नेगी की बेटी हैं, जो भारतीय सेना में अफ़सर थे.

रतन मंजरी नेगी मात्र 22 वर्ष की आयु में वे ग्राम प्रधान बन गईं थीं. तब कई महिलाएं संपत्ति के अधिकार से वंचित होने की अपनी समस्या लेकर उनके पास पहुंचीं.

वह कहती हैं, ”यह कानून क्रमशः पत्नी और बेटियों को उनके पति और पिता की पैतृक संपत्ति में कोई भी हिस्सा लेने से वंचित करता है,” हालांकि वह स्वीकार करती हैं कि उनके अभियान के परिणाम स्वरूप कई परिवारों में भाइयों ने स्वयं अपनी इच्छा से बहनों को संपत्ति में हिस्सा देना शुरू कर दिया है

उनके मन में यह सवाल उठा कि जब पुरुष और महिलाएं एक ही कोख से पैदा होते हैं, तो समाज महिलाओं के साथ भेदभाव क्यों करता है? इसके बाद उनके मन में ‘महिला कल्याण परिषद’ नामक एक एनजीओ बनाने का विचार आया, जो महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के लिए काम करता है.

2015 में, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं के पक्ष में अपना फैसला सुनाया और कहा कि उन्हें विरासत के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है. न्यायालय का दृढ़ विचार था कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (जो समान विरासत अधिकार प्रदान करता है) को प्रथागत कानून पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गई कि इस कदम के परिणामस्वरूप भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाएगी. इसके परिणामस्वरूप मुकदमेबाजी भी होगी. यह भी तर्क दिया गया कि जो महिलाएं गैर-आदिवासियों या समुदाय के बाहर के किसी व्यक्ति से शादी करेंगी, वह भी विवाद उत्पन्न होगा. इसके बाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी गई और मंजरी ने इसे चुनौती दी. यह मामला सर्वोच्च अदालत में अनिर्णित है.

Photo credit www.tribalkhabar.in

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