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आदिवासी पहचान के प्रति उपनिवेशवादी नज़रिया दिखाती एक ख़ूबसूरत फ़िल्म

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) में भी इंसानों में अलग अलग आधार पर भेदभाव के संदर्भ में ‘Humans in the Loop’ नाम की एक फिल्म को काफ़ी चर्चा मिल रही है.

यह फिल्म खास है क्योंकि इस फिल्म की नायिका (Protagonist) झारखंड की एक आदिवासी है. यानी ये पूरी कहानी एक आदिवासी नज़रिए से दिखाई गई है.

नायिका के ज़रिए यह सवाल उठाया गया है कि अगर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आने वाले समय में पूरी दुनिया को बदलने वाला है, तो क्या उसमें आदिवासियों की पहचान और नज़रिये की भी जगह होगी?

फिल्म के निर्देशक अरन्या सहाय ने इसके लिए लगभग एक साल झारखंड में रहकर वहां के समाज, जंगल और आदिवासी जीवन को समझा. उनके अनुसार उनकी यही यात्रा फिल्म की नींव बनी.

कहानी नेहमा नाम की एक आदिवासी महिला की है. पति से तलाक लेने के बाद नेहमा को काम की तलाश होती है और वह एक AI डेटा-लेबलिंग सेंटर में नौकरी करने लगती है.

यहां उसका काम होता है फोटोज़ और वीडियोज़ में चीज़ों को पहचानना, जैसे सड़क, गाड़ी, ट्रैफिक, लाइट, कुर्सी-टेबल.

ये डेटा मशीन को सिखाने के लिए इस्तेमाल होता है ताकि वह इंसानों की तरह समझना सीख सके.

नेहमा को शुरुआत में यह काम अच्छा लगता है. लेकिन धीरे-धीरे उसे अहसास होता है कि मशीनें जिस डेटा से सीख रही हैं, वह ज़्यादातर पश्चिमी देशों से जुड़ा हुआ है.

झारखंड की ज़िंदगी, आदिवासी समाज, जंगल और उसकी रोज़मर्रा की तस्वीरें इस डेटा में कहीं नहीं हैं.

यहीं से फिल्म एक बड़ा सवाल खड़ा करती है अगर एआई (AI) सिर्फ यूरोप और अमेरिका की तस्वीरों से सीखेगा, तो क्या आदिवासी ज़मीन, उनकी भाषा और उनकी जीवनशैली अनदेखी रह जाएगी?

फ़िल्म के निर्देशक के मन में सवाल है कि क्या यह एक उपनिवेशवादी नज़रिया नहीं होगा? जैसे अंग्रेज़ों ने आदिवासियों को ‘जंगली’ और ‘पिछड़ा’ कहकर उनके ज्ञान को कमतर बताया था?

इस फिल्म में आदिवासी समाज का प्रकृति से जुड़ाव भी दिखाया गया है. एक दृश्य में नेहमा अपनी बेटी को जंगल ले जाती है और बताती है कि शकरकंद ज़मीन से धीरे-धीरे निकालना चाहिए और पौधों का सम्मान करना चाहिए.

यह हमारे समाज की वही परंपरा है जिसमें हर घास, हर पेड़ को आभार दिया जाता है.

निर्देशक सहाय का कहना है कि दुनिया की नज़र में अक्सर आदिवासी ज्ञान को आदिम कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. जबकि असल में यही ज्ञान प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीने का रास्ता दिखाता है.

यह फिल्म सिर्फ तकनीक पर नहीं, बल्कि एक मां और बेटी की भावनात्मक कहानी पर भी आधारित है.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस साल के विश्व आदिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous People 2025) के थीम भी आदिवासी और आर्टिफ़िशयल इंटेलिजेंस ही रखा था.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा है कि जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदिवासी समुदायों के नौजवानों का भविष्य संवार सकता है, वहीं यह तकनीक आदिवासी संस्कृति को भारी नुकसान भी पहुंचा सकती है.

इस चिंता में यह भी कहा गया था कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में आदिवासी संसधानों का डेटा भर देने से उनके ये संसाधन लूटे जा सकते हैं.

यानि इस फ़िल्म में जो चिंता प्रकट की गई है, वह दुनिया भर में नज़र आ रही है.

लेकिन जब फ़िल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम से कोई बात कही जाती है तो उसकी पहुंच और असर दोनों ही बढ़ जाता है.

इस लिहाज़ से यह फिल्म निश्चित ही एक अच्छा प्रयास है.

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