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क़ानून के हवाले से आदिवासी को हिंदू बताना कितना जायज़

सरकार ने शुक्रवार को भाजपा सांसद मन्ना लाल रावत द्वारा उठाए गए एक प्रश्न के उत्तर में संसद को बताया कि नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 में आदिवासियों को हिंदू धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के रूप में शामिल किया गया है.

दरअसल, कानूम मंत्री अर्जुन राम मेघवाल से पूछे गए एक प्रश्न में रावत ने पूछा था कि क्या अधिनियम में हिंदुओं को परिभाषित किया गया है और अदर हां, तो क्या इस परिभाषा में आदिवासी लोग शामिल हैं.

लोकसभा में इसका जवाब देते हुए कानून मंत्री ने कहा कि नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 समेत विभिन्न केंद्रीय अधिनियमों में ‘हिंदुओं’ की परिभाषा दी गई है.

उन्होंने कहा कि अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण में कहा गया है, “बौद्ध, सिख या जैन धर्म को मानने वाले व्यक्ति या वीरशैव, लिंगायत, आदिवासी, ब्रह्मो, प्रार्थना, आर्य समाज और स्वामीनारायण संप्रदाय के अनुयायियों सहित किसी भी रूप या विकास में हिंदू धर्म को मानने वाले व्यक्ति हिंदू माने जाएंगे.”

कानून मंत्री ने कहा कि इस स्पष्टीकरण में अधिनियम की धारा 3 और 4 के प्रयोजनों के लिए “हिंदुओं” को परिभाषित किया गया है.

अधिनियम की धारा 3 में “अस्पृश्यता” के आधार पर धार्मिक अक्षमताओं को लागू करने के लिए दंड का प्रावधान है, जबकि अधिनियम की धारा 4 में “अस्पृश्यता” के आधार पर सामाजिक अक्षमताओं को लागू करने के लिए दंड का प्रावधान है.

अर्जुन राम मेघवाल की प्रतिक्रिया इस बहस के बीच आई है कि क्या देश के आदिवासी या जनजातीय लोगों को हिंदू धर्म का पालन करने वाले लोगों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है.

वहीं संघ परिवार और उसके सहयोगी दशकों से यह तर्क देते रहे हैं कि आदिवासी समुदाय हिंदू संस्कृति और समाज का अभिन्न अंग हैं. क्योंकि वे उनकी पूजा और कई हिंदू समुदायों की पूजा के बीच समानताएं बताते हैं.

जबकि झारखंड, ओडिशा, राजस्थान और अन्य कई राज्यों में आदिवासियों की स्वतंत्र धार्मिक और सामाजिक पहचान के लिए आंदोलन कर रहे हैं.

झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल में सरना धर्म की माँग के समर्थन में लंबे आंदोलन देखे गए हैं.

इन इलाक़ों में कई आदिवासी संगठन कहते हैं कि उनकी पूजा हिंदू धर्म से बिल्कुल अलग है और हिंदू के रूप में वर्गीकृत किए जाने पर भी आपत्ति जताई है.

क्या है देश के संविधान में

हिंदूवादी संगठन और वर्तमान सरकार बेशक इस बात पर ज़ोर देती है कि भारत में रहने वाले सभी आदिवासी मूलतः हिंदू ही हैं. लेकिन संविधान या क़ानून में ऐसा नज़र नहीं आता है.

हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 2(2) और हिन्दू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम 1956 की धारा 3(2) अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होती.

इसकी वजह ये है कि सैकड़ों जनजातियों और उप-जनजातियों के शादी, तलाक और उत्तराधिकार को लेकर अलग रीति-रिवाज हैं.

देश के कई राज्यों में आदिवासी संगठन और कार्यकर्ता यह माँग कर रहे हैं कि जनगणना के फार्म में आदिवासियों की धार्मिक पहचान के लिए अलग से कॉलम होना चाहिए.

आजाद भारत में जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा और जनगणना में ‘अन्य’ नाम से धर्म की कैटेगरी बना दी गई.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अनुसूचित जनजातियों की आबादी करीब साढ़े 10 करोड़ है. सेंसस के दौरान 79 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे, जिन्होंने धर्म के कॉलम में ‘अन्य’ भरा था लेकिन साढ़े 49 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे जिन्होंने खुद को ‘सरना’ लिखा था.

बावजूद इसके अब लगातार इस पर बहस हो रही है कि आदिवासी हिंदू है या नहीं… भारत के आदिवासियों के धार्मिक वर्गीकरण पर यह बहस लोकसभा चुनाव प्रचार में तब केंद्र में आ गई जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बार-बार भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की कि वह एसटी समुदायों को ‘आदिवासी’ के बजाय ‘वनवासी’ (वनवासी) के रूप में संदर्भित करती है.

(Photo credit: ANI)

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