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जंगल के मालिक आदिवासी, दाह संस्कार तक को ज़मीन नहीं मिलती

तमिलनाडु के कृष्णागिरी के एक गांव में शमशान भूमि न होने की वजह से अनुसूचित जाति और जनजाति के बीच विवाद खड़ा हो गया. आदिवासियों ने एक अपने समुदाय के 70 वर्षीय बुजुर्ग का अंतिम संस्कार एक गांव की खुली ज़मीन पर किया था. इस भूमि के पास अनुसूचित जाति की बस्ती है.

आदिवासियों का कहना है कि इस भूमि पर उनके पुरखों का अधिकार रहा है. यह भी पता चला है कि यह ज़मीन रंगप्पा यानि उन्हीं की थी जिनका निधन हुआ था. इसलिए आदिवासी समुदाय ने उसी ज़मीन पर उनका अंतिम संस्कार किया था.

जबकि गांव के लोगों के कुछ परिवारों का दावा है कि यह ज़मीन रंगप्पा ने गांव के ही कालिया गौड़ा को बेच दिया था.  रविवार दोपहर एंचेट्टी के नायकनकोट्टई गांव में इस मसले पर दोनों समुदयाों के बीच एक विवाद छिड़ गया. 

ख़बरों के मुताबिक कोट्टियूर पंचायत के अंतर्गत आने वाले नायकनकोट्टई में 30 अरुंथथियार परिवार रहते हैं. अनुसूचित जनजाति के रंगप्पा का शनिवार को निधन हो गया और खेत में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.

अनुसूचित जाति के लोगों का कहना था कि बस्ती के करीब दाह संस्कार पर उनकी आपत्ति थी. उन्होने ज़मीन के मालिकाना हक़ का सवाल ही नहीं उठाया था. आदिवासी समुदाय का कहना है कि पहले वो जंगल में अपने मृतकों को दफ़नाते थे. लेकिन अब वन विभाग इसकी अनुमति नहीं देता है. इस सूरत में आदिवासी काफ़ी लंबे समय से अपनी ज़मीन पर ही अपने परिवार में किसी की मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार करते हैं. 

अच्छी बात यह रही कि समय पर पुलिस मौके पर पहुंच गई. पुलिस के बीच बचाव और दोनों ही पक्षों के बुजुर्गों की सहमति से मामला आपस में ही निपट गया. अब प्रशासन ने आश्वासन दिया है कि आदिवासियों के लिए एक शमशान भूमि का इंतज़ाम किया जाएगा. 

यह अपने आप में एक बड़ी अजीब बात है कि जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के पास अपने परिवारजनों की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को भी ज़मीन नहीं है. इसके अलावा उनके अंतिम संस्कार की विधि पर भी दूसरे समुदाय अपनी मर्ज़ी थोपना चाहते हैं. उम्मीद है कि इस घटना के बाद इस स्थिति को समझते हुए प्रशासन अपने वादे को पूरा करेगा. क्योंकि यह घटना एक बड़े विवाद और हिंसा का बीज भी साबित हो सकती है. 

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