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आदिवासी क्षेत्रों में करीब 50% छात्र कक्षा 8 पूरी करने से पहले ही छोड़ देते हैं स्कूल- रिपोर्ट

आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकित कुल बच्चों में से लगभग आधे बच्चे यानि 48.2 प्रतिशत कक्षा 8 की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं. केंद्र द्वारा गठित एक स्वतंत्र निकाय द्वारा जारी आदिवासी विकास रिपोर्ट, 2022 में इस बात का खुलासा हुआ है.

इन क्षेत्रों में कार्रवाई करने के लिए गठित निकाय ने यह भी पाया कि कक्षा 10 या माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या 62.4 प्रतिशत की संचयी ड्रॉपआउट दर के साथ कम है. कुल मिलाकर कक्षा 1 में दाखिला लेने वाले अनुसूचित जनजाति के बमुश्किल 40 प्रतिशत बच्चे कक्षा 10 तक पहुँच पाते हैं क्योंकि वे विभिन्न चरणों में पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं.

देश में आदिवासी समुदायों के विकास पर नज़र रखने वाले इस तरह के पहले दस्तावेज़ के रूप में रिपोर्ट का दावा है कि ड्रॉपआउट दर विशेष रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा के, आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों का, अन्य समुदायों की तुलना में बहुत अधिक है.

यह रिपोर्ट 29 नवंबर को भारत ग्रामीण आजीविका फाउंडेशन (Bharat Rural Livelihoods Foundation) द्वारा जारी की गई थी, जो 2013 में ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD) के तहत केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्थापित एक स्वतंत्र निकाय है.

यह अनुसूची V क्षेत्रों (जिन राज्यों में अनुसूचित जनजातियों की महत्वपूर्ण आबादी है) आंध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित), झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, ओडिशा और राजस्थान पर केंद्रित है.

वर्तमान में, आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल छोड़ने की दर 31.3 प्रतिशत (31.9 प्रतिशत पुरुष, 30.7 प्रतिशत महिला) है, जिसमें लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या अधिक है. 48.2 प्रतिशत बच्चों (49.8 प्रतिशत पुरुष, 46.4 प्रतिशत महिलाएं) के स्कूल छोड़ने के साथ एलिमेंटरी साइकिल (कक्षा 1-8) में एक चिंताजनक प्रवृत्ति स्कूल छोड़ने की दर रही है. कक्षा 10 के अंत में माध्यमिक शिक्षा में प्रवेश करने वालों के लिए, 63.2 प्रतिशत पुरुष छात्र और 61.4 प्रतिशत महिला छात्र बाहर हो गए.

राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान (एनआईईपीए) के शैक्षिक शोधकर्ता और शिक्षक प्रबंधन के सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमला रामाचंद्रन, जिन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा की स्थिति पर पेपर लिखा है, ने कहा, “एसटी, एससी और सभी समुदायों के बीच एक उल्लेखनीय अंतर है. लेकिन एसटी की स्थिति सबसे चुनौतीपूर्ण है.”

कारण क्या है?

रामाचंद्रन के अनुसार, आज़ादी के बाद से इस तरह के मुद्दों को देखने के लिए कई समितियों का गठन किया गया है और इसी तरह के हस्तक्षेप की सिफारिश की है लेकिन राजनीतिक संकल्प की कमी ने उनके कार्यान्वयन में बाधा डाली है.

उन्होंने कहा, “केंद्र सरकार के अधिकांश कार्यक्रम पूरे देश के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। वे विशिष्ट समूहों की जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं जो अक्सर संघर्ष और विस्थापन का सामना करते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, ज्यादातर शिक्षक कॉन्ट्रैक्ट पर हैं और कक्षा 3-4 को पढ़ाने के लिए उनकी न तो ट्रेनिंग हुई है और न ही स्किल है. वे ज्यादातर बाहरी हैं और इसलिए वहां की भाषा नहीं जानते हैं. साथ छात्र और शिक्षक के बीच एक बड़ी सामाजिक दूरी है क्योंकि यह देखा गया है कि शिक्षकों को लगता है कि आदिवासी बच्चे सीखने में सक्षम नहीं हैं. 10वीं के बाद मैथ्स और साइंस पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी के कारण साइंस और कॉर्मस नहीं पढ़ाया जाता है. इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में छोटे स्कूल हैं (50 से कम छात्रों के साथ) और अधिक मानव संसाधन की आवश्यकता है.”

विमला रामाचंद्रन ने कहा, “आदिवासी मामलों और शिक्षा मंत्रालयों वाली एक उच्च स्तरीय समिति को अनुसूचित जनजाति के बीच स्कूल और उच्च शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए मौजूदा योजनाओं और रणनीतियों की समीक्षा करने की आवश्यकता है. साथ ही इस कार्यान्वयन की समीक्षा के लिए राज्य स्तर पर संयुक्त तंत्र स्थापित करने की भी आवश्यकता है. मैथ्स, साइंस, कॉर्मस और पर्यावरण विज्ञान में प्रशिक्षित शिक्षकों को लाने के लिए एक समयबद्ध और केंद्रित योजना की आवश्यकता है.”

आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन

यह रिपोर्ट 2014 में शिक्षा मंत्रालय द्वारा ‘आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन’ (‘out of school children’- OOSC) पर किए गए एक राष्ट्रीय अध्ययन के निष्कर्षों पर प्रकाश डालती है. अनुसूचित जनजाति, जो जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है (2011 की जनगणना के अनुसार) देश में ओओएससी का 11 प्रतिशत है.

रिपोर्ट में कहा गया है, “ओओएससी एसटी बच्चे 11 से 13 आयु वर्ग के सबसे ज्यादा हैं. जो अन्य डेटा स्रोतों के निष्कर्षों की पुष्टि करते हैं कि अपर प्राइमरी और उच्च स्तरों पर एसटी बच्चे अनुपातहीन रूप से बड़ी संख्या में बाहर हो जाते हैं. राजस्थान (24 फीसदी पुरुष, 38.8 फीसदी महिलाएं) और ओडिशा (23 फीसदी पुरुष, 26 फीसदी महिलाएं) जैसे राज्य इस आयु वर्ग में ओओएससी का बहुत अधिक प्रतिशत दर्ज करते हैं.”

सामाजिक समूहों द्वारा अलग-अलग करने से पता चलता है कि भारत में स्कूल न जाने वाले बच्चों का अधिकतम अनुपात अनुसूचित जनजातियों (4.20 प्रतिशत) के भीतर है. इसके बाद अनुसूचित जाति (3.24 प्रतिशत) और अन्य (1.84 प्रतिशत) का स्थान है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्ण संख्या में, 10 लाख 7 हज़ार 562 अनुसूचित जनजाति के बच्चे स्कूल से बाहर हैं (9,25,193 ग्रामीण और 82,369 शहरी). ग्रामीण क्षेत्रों में, 6 से 13 आयु वर्ग में स्कूल से बाहर रहने वाले एसटी लड़कों की संख्या लड़कियों (4 लाख 90 हज़ार 483 लड़के, 4 लाख 34 हज़ार 710 लड़कियां) की तुलना में मामूली अंतर है. इसी तरह, शहरी क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के लड़कियों की तुलना में अधिक लड़के (41 हज़ार 648 लड़के और 40 हज़ार 721 लड़कियां) स्कूल से बाहर हैं.

आर्थिक रूप से गरीब राज्यों में उच्च शिक्षा में नामांकित छात्रों का प्रतिशत कम होने के कारण, हाल ही में बनाए गए छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी राज्य बहुत ही धूमिल तस्वीर दिखाते हैं.

उम्मीद है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इस मसले पर भी कुछ बहस होगी. क्योंकि यह रिपोर्ट किसी ग़ैर सरकारी संस्था की नहीं है बल्कि सरकार की नियुक्त की गई कमेटी की है.

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