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असम: टी ट्राइब्स से जुड़े मुद्दों की होगी समीक्षा, क्या इस बार सुधरेंगे हालात?

असम के टी ट्राइब्स के अधिकारों और पहचान से जुड़े मुद्दों की समीक्षा करने के लिए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने सात समितियों के गठन की घोषणा की है. इन समितियों में टी ट्राइब के सदस्य भी शामिल होंगे, जो स्वास्थ्य, शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट जैसे मुद्दों की स्टडी कर सिफारिशें देंगे.

सोमवार को समुदाय के नेताओं, नौकरशाहों और राजनेताओं सहित बुद्धिजीवियों के साथ एक कार्यक्रम ‘हमदेर मोनेर कोठा’ में सरमा ने कहा, “सिफ़ारिशों के आधार पर, सरकार ज़रूरी योजनाएं लेकर आएगी, जिन्हें राज्य के अगले बजट में शामिल किया जाएगा.”

मुख्यमंत्री ऑफ़िस ने बताया कि सोमवार की बैठक में “समुदाय के संपूर्ण विकास के लिए एक रोडमैप तैयार करने” की कोशिश की गई, और कई मुद्दों पर चर्चा हुई. इनमें बुनियादी विकास, वैकल्पिक और अतिरिक्त आजीविका की खोज, शिक्षा, स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे, और समुदाय की विरासत, संस्कृति और भाषा की सुरक्षा करना शामिल हैं.

सरमा ने कहा कि सात अलग-अलग समितियां स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, संस्कृति, साहित्य, खेल और रोज़गार पर ध्यान देंगी और अपने सुझाव देंगी. हर समिति में एक सरकारी अधिकारी सदस्य सचिव के रूप में शामिल होगा.

असम  टी ट्राइब

टी ट्राइब को कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, उरांव, और संथाल आदिवासियों से जोड़ा जा सकता है

असम के टी ट्राइब को दूसरे राज्यों के कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, उरांव, और संथाल आदिवासियों से जोड़ा जा सकता है. 1820 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इन आदिवासियों को आज के आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था.

वक्त के साथ चाय उद्योग बढ़ा और चाय बागनों का क्षेत्रफल भी. साथ ही इन चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों की तादाद भी बढ़ती गई. 1872 में जंहा असम घाटी में 27 हज़ार एकड़ चाय बागान थे, वो बीसवीं सदी शुरू होते होते यानि 1900 में लगभग दो लाख चालीस हज़ार एकड़ में फैल गये. 

आज़ादी के वक्त अंदाज़न पांच लाख से ज़्यादा आदिवासी इन चाय बागानों में काम कर रहे थे. मौजूदा आंकड़ों के हिसाब से टी ट्राइब कहे जाने वाले इन आदिवासियों की आबादी असम की कुल आबादी का लगभग 20 प्रतिशत है.

टी ट्राइब को असम की राजनीति में एक अहम वोटबैंक के रूप में देखा जाता है. हर बार चुनाव से पहले कई वादे इनसे किए जाते हैं, लेकिन आज तक ज़्यादातर वादे अधूरे ही हैं.

अब देखना यह है कि सरमा की यह पहल कितनी कारगर होती है, और समितियों द्वारा दिए गए सुझावों पर कितना अमल होता है.

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