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टिपरा मोथा: बीजेपी के साथ में सरकार बनाए या बिखर जाए?

भारतीय जनता पार्टी (BJP) की त्रिपुरा (Tripura) इकाई के प्रमुख सुब्रत चक्रवर्ती (Subrata Chakraborty) ने गुरुवार को मीडिया से कहा कि अगर पूर्व शाही वंशज प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा (Pradyot Debbarma) की टिपरा मोथा (Tipra Motha) पार्टी अपना समर्थन देती है तो वह ग्रेटर टिपरालैंड (Greater Tipraland)के अलावा उनकी सभी मांगों को मानने को तैयार हैं. उन्होंने कहा, “हम राज्य में अगली सरकार बनाने जा रहे हैं, जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं.. दो केंद्रीय नेता यहां फणींद्रनाथ सरमा और संबित पात्रा यहां स्थिति पर नज़र रखने के लिए मौजूद हैं. उम्मीद है कि आज और केंद्रीय नेता यहां पहुंचेंगे.”

देबबर्मा की पार्टी का समर्थन करने के सवाल पर सुब्रत चक्रवर्ती ने कहा, “ग्रेटर टिपरालैंड के अलावा बीजेपी उनकी सभी मांगे मानने को तैयार है.”

इस सिलसिले में MBB से बात करते हुए टिपरा मोथा के बड़े नेता और नवनिर्वाचित विधायक अनिमेष देब बर्मा ने कहा, “अगर बीजेपी टिपरा मोथा की माँग का संविधान के दायरे में समाधान करने को तैयार है तो फिर हमें सरकार में जाने में क्या आपत्ति हो सकती है. क्योंकि ग्रेटर टिपरालैंड की माँग के अलावा लोगों के विकास के लिए भी तो हमें काम करना है. तो राज्य और केंद्र में सत्ताधारी पार्टी अगर हमें न्यौता दे रही है तो हम उनसे बात ज़रूर कर सकते हैं.”

टिपरा मोथा त्रिपुरा की ट्राइबल आबादी के लिए एक अलग राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की मांग कर रहा है.

त्रिपुरा विधानसभा के चुनावी नतीजे सामने आ गए हैं. एक बार फिर भाजपा राज्य में सरकार बना रही है. लेकिन विधानसभा चुनावों में प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा की नव गठित पार्टी ने अपने प्रदर्शन से सबको चौंका दिया है. टिपरा मोथा ने 13 सीटों पर जीत दर्ज की है.

वहीं त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित प्रद्योत देबबर्मा ने कहा, “एक-दो साल पुराना दल आज त्रिपुरा में यंगेस्ट और दूसरा सबसे बड़ा दल बन चुका है. ये जनता का आशीर्वाद है. हम थोड़े से पीछे आए हैं लेकिन दो साल में 0 से 13 पर आना एक उपलब्धि है. सीपीएम आज 11 और कांग्रेस 3 पर है. इसलिए ये हमारे लिए बहुत बड़ी चीज है.”

उन्होंने कहा कि हम दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं इसलिए हम रचनात्मक विपक्ष में बैठेंगे लेकिन सीपीएम या कांग्रेस के साथ नहीं बैठेंगे. उन्होने कहा कि हम स्वतंत्र रूप से बैठ सकते हैं. हम सरकार को जब भी जरूरत होगी मदद करेंगे.

त्रिपुरा की कुल 60 विधानसभा सीटों में से प्रद्योत की पार्टी टिपरा मोथा ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा और अपने पहले ही चुनाव में आदिवासी वोट में ऐसी सेंध लगाई कि लेफ्ट और कांग्रेस कहीं पीछे छूट गए.

भले ही प्रद्योत सत्ता के करीब नहीं पहुंच सके लेकिन चुनावी नतीजों के बाद जो समर्थन टिपरा मोथा को मिला है उससे एक बात तो यकीनन साफ हो चली है कि पार्टी ने अपना जनाधार राज्य में निश्चित तौर पर बना लिया है.

वहीं आदिवासियों के लिए काम करने का वादा करने वाली बीजेपी एक अलग राज्य बनाने के लिए राज्य के विभाजन के खिलाफ मुखर रही है.

गृह मंत्री अमित शाह ने अपने कैंपेन के दौरान अक्सर ये कहा कि वो अगल राज्य बनाने की मांग के खिलाफ हैं. उन्होंने टीपरा मोथा के मुखिया यानि प्रद्योत देबबर्मा पर आरोप लगाया था कि शाही वंशज की पार्टी की कांग्रेस और सीपीआई (एम) के साथ एक “गुप्त समझौता” है और मूल निवासियों को गुमराह करके राज्य में कम्युनिस्ट शासन को वापस लाने की कोशिश कर रही है.

जबकि त्रिपुरा में बड़े पैमाने पर प्रचार करने वाले असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि बीजेपी त्रिपुरा की आदिवासी आबादी के लिए कुछ भी करने को तैयार है लेकिन वह “राजाओं द्वारा बनाए गए राज्य” को कभी विभाजित नहीं करेगी.

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा भी ग्रेटर टिपरालैंड की मांग के खिलाफ हैं. उन्होंने ग्रेटर टिपरालैंड पर कहा था कि यह मांग पूरी करना संभव नहीं क्योंकि इसकी प्रस्तावित सीमा न सिर्फ असम और मिजोरम बल्कि पड़ोसी बांग्लादेश से भी गुजरती है.

चुनाव से पहले बीजेपी ने वादा किया था कि अगर वह फिर से सत्ता में आती है तो वह “TTAADC (त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद) का पुनर्गठन करेगी ताकि प्रस्तावित 125वें संविधान संशोधन बिल के ढांचे के भीतर इसे अधिक स्वायत्तता और अतिरिक्त विधायी, कार्यकारी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां प्रदान की जा सकें.”

ग्रेटर टिपरालैंड की मांग

प्रद्योत देबबर्मा ने 2021 के त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (Tripura Tribal Areas Autonomous District Council (ADC) चुनाव नहीं लड़ा लेकिन उन्होंने ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की अपनी मांग को आगे बढ़ाया.

इसके पीछे वजह यह थी कि साल 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान बंगाली समुदाय के लोगों ने त्रिपुरा में शरण ली. जनगणना 2011 के अनुसार, बंगाली त्रिपुरा में 24.14 लाख लोगों की मातृभाषा है जो राज्य की कुल 36.74 लाख आबादी में से दो-तिहाई है.

प्रद्योत अलग राज्य की मांग इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अलग राज्य आदिवासियों के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा करने में मदद करेगा, जो बंगाली समुदाय के लोगों के आ जाने से अब अल्पसंख्यक हो गए हैं. टिपरा मोथा का त्रिपुरा में 2021 में एडीसी चुनाव जीतना इस बात का स्पष्ट संकेत था कि प्रद्योत ने आदिवासी समुदाय के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर ली है.

आदिवासी हितों के साथ ग्रेटर टिपरालैंड की अपनी मांग पर अडिग रहते हुए उन्होंने विधानसभा चुनाव से पहले दो टूक कहा था कि बहुमत का आंकड़ा नहीं मिलता है तो मैं विपक्ष में बैठना पसंद करूंगा या जो भी सरकार बनाता है, उससे हम ग्रेटर टिपरालैंड पर लिखित आश्वासन लेंगे.

प्रद्योत ने कहा था कि मैं सत्ता का सुख लेने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहा हूं बल्कि त्रिपुरा के आदिवासियों की मुश्किलों का हल निकालने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.

प्रद्योत देबबर्मा का सियासी सफर

प्रद्योत देबबर्मा त्रिपुरा के 185वें महाराजा कीर्ति बिक्रम किशोर देबबर्मा के इकलौते बेटे हैं. उनका जन्म 4 जुलाई 1978 को दिल्ली में हुआ था. राजशाही परंपरा खत्म होने के बाद महाराजा कीर्ति देबबर्मा ने सियासत में कदम रखा और कांग्रेस से जुड़े. प्रद्योत कांग्रेस के युवा मोर्चा से जुड़ गए और त्रिपुरा में आदिवासी वर्ग के लिए काम करने लगे लेकिन 2019 में कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने टिपरा मोथा का गठन किया.

कांग्रेस से अलग होने के बाद प्रद्योत ने ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग रखी. वो कहते रहे ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ त्रिपुरा राज्य से अलग एक राज्य होगा. नई जातीय मातृभूमि मुख्य रूप से उस क्षेत्र के स्वदेशी समुदायों के लिए होगी जो विभाजन के दौरान पूर्वी बंगाल से भारत आए बंगालियों की वजह से अपने ही क्षेत्र में अल्पसंख्यक हो गए थे.

देबबर्मा की टिपरा मोथा अप्रैल 2022 में अपने गठन के महज तीन महीने बाद त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (TTAADC) के लिए हुए चुनावों में आईपीएफटी को शून्य पर समेटने में सफल रही.

टीटीएएडीसी चुनाव में टिपरा मोथा ने 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि भाजपा को दस सीटों से संतोष करना पड़ा था.

कब उठी ग्रेटर टिपरालैंड की मांग?

त्रिपुरा में 13वीं शताब्दी के अंत माणिक्य वंश का शासन हुआ करता था. 1949 में भारत सरकार के साथ विलय होने के बाद माणिक्य वंश शासित राज्य सरकार के कब्जे में आ गया. 1947 से 1971 के बीच उस समय के पूर्वी पाकिस्तान से बंगालियों का विस्थापन हुआ.

त्रिपुरा में आदिवासियों की जनसंख्या 1881 में जहां 63.77% थी, वहीं 2011 तक 31.80% रह गई. इस बीच दशकों में जातीय संघर्ष और उग्रवाद ने राज्य को जकड़ लिया. यह मांग राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव के बाद समुदायों की चिंता के बाद उभरी है.

त्रिपुरा में हाशिए पर रह रहे आदिवासी

त्रिपुरा में लगभग 31 प्रतिशत आदिवासी आबादी है. फिर भी वे राज्य के सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले लोग हैं. कम्युनिस्टों ने 25 साल, कांग्रेस ने 15 साल और अब बीजेपी राज्य पर शासन कर रही है लेकिन किसी ने भी आदिवासियों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ खास नहीं किया. कानून हैं लेकिन वे सिर्फ कागज पर हैं, संविधान के अनुच्छेद हैं पर उनसे आदिवासियों की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा.

2011 की जनगणना के अनुसार त्रिपुरा में आदिवासी समाज की आबादी 31.8 प्रतिशत है. त्रिपुरा की आदिवासी आबादी 19 अधिसूचित समुदायों में बंटी है. इनमें से सबसे बड़ा समुदाय त्रिपुरी है. 2011 की जनगणना के अनुसार त्रिपुरा में लगभग 6 लाख त्रिपुरी हैं. दूसरे नंबर पर ब्रू या रियांग आत हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 2 लाख है. वहीं जमातिया की जनसंख्या करीब 1 लाख के आसपास है.

संस्कृति, सियासत और सरकार में बंगाली समुदाय के बढ़ते असर के खिलाफ आदिवासी समाज कई बार आंदोलित होता रहा है. टिपरा मोथा आदिवासी समाज की इन्हीं आकांक्षाओं की नुमाइंदगी करने का दावा करता है.

लेकिन टिपरा मोथा के सामने अब यह चुनौती है कि वो या तो बीजेपी की सरकार का हिस्सा बन जाए या फिर विपक्ष में रह कर आदिवासी आकांक्षाओं का झंडा बुलंद करे. लेकिन दूसरे विकल्प में उनके सामने ख़ुद को बीजेपी के चाणक्यों से बचाने की चुनौती होगी जो क्षेत्रिय दलों को तो छोड़िये, राष्ट्रीय दलों को तोड़ने और सरकारों को गिराने में माहिर हो चुके हैं.

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