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क्या आदिवासी महिलाओं का विवाह उनका हक छीन सकता है?

त्रिपुरा राज्य की राजनीति में एक विवादित प्रस्ताव ने फिर से सुर्खियाँ बटोरी हैं.

राज्य की एक आदिवासी पार्टी, जो पहले स्थानीय जनजातीय हितों के लिए मुखर रही, ने एक पत्र के माध्यम से प्रस्ताव रखा है—कि आदिवासी महिलाएँ यदि गैर-आदिवासी पुरुष से विवाह करती हैं, तो उन्हें मिलने वाले अनुसूचित जनजाति (ST) से जुड़े लाभ रद्द कर दिए जाएँ.

यह मामला सोशल मीडिया और जन चर्चा का केंद्र बन गया है.

त्रिपुरा की Indigenous Peoples Front of Tripura (Tipraha group), जिसे IPFT-Tipraha कहते हैं, ने यह मांग करते हुए कहा है कि उनके अनुसार, बहुत से गैर-आदिवासी पुरुष आदिवासी महिलाओं से विवाह कर ST संबंधी सुविधाओं का लाभ उठाते हैं.

वे दावा करते हैं कि इस तरह की शादी से गैर‑आदिवासी पुरुष सामाजिक, आर्थिक और कानूनी सुविधाओं का गलत तरीके से लाभ उठा रहे हैं, जैसे कि सरकारी नौकरियाँ, लाइसेंस या भूमि संबंधी अधिकार.

इससे उनका कहना है कि आदिवासी समुदाय की पहचान और अवसर कमजोर हो रहे हैं.

पार्टी अध्यक्ष की ओर से कहा गया कि त्रिपुरा में कई ऐसी स्थितियाँ देखी गई हैं जहाँ आदिवासी महिलाएँ गैर-आदिवासी पुरुषों से शादी कर उन्हें ST से मिलने वाले लाभ पहुंचा रही हैं.

विशेष रूप से खवाई क्षेत्र का जिक्र करते हुए, कहा गया है कि वहाँ करीब आधी आदिवासी महिलाएँ यह कदम उठा रही हैं.

ऐसे में आदिवासी वर्ग पहले से ही अल्पसंख्यक होने के कारण संकट में पड़ सकता है.

इसकी चेतावनी देते हुए सरकार से अनुरोध किया गया कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए जल्द कानून बनाया जाए.

यह प्रस्ताव मेघालय में पहले से पारित एक कानून की तर्ज पर लाया गया है, जहाँ खासी जनजाति परिषद ने ऐसी शादी करने वाली खासी महिलाओं को अपना जनजातीय दर्जा खो देने की व्यवस्था की थी.

त्रिपुरा की पार्टी भी चाहती है कि उनके राज्य में ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जाए.

इस सुझाव ने कई संवैधानिक और सामाजिक सवाल भी खड़े कर दिए हैं.

आलोचनाएँ यह उबार रही हैं कि यह कदम महिलाएँ और उनके व्यक्तिगत अधिकारों के विरुद्ध है.

यह मामला लिंग‑आधारित भेदभाव (gender discrimination) और नागरिक अधिकारों से जुड़ी संवैधानिक आज़ादी को भी चुनौती देता है.

कुछ लोग यह कहते हैं कि विवाह एक व्यक्ति का व्यक्तिगत फैसला है, और उस निर्णय को आधार बनाकर राज्य‑लाभ छीनना अनुचित और संवैधानिक रूप से गलत है.

सवाल पूछा जा रहा है कि क्या राज्य सरकार इस तरह के प्रस्ताव को गंभीरता से लागू करेगी?

और क्या विधायिका में इस पर कोई कानून बनेगा?

साथ ही यह भी कि क्या यह सिर्फ आदिवासी पहचान बचाने की कोशिश है, या इसके पीछे समाज पर नियंत्रण बनाए रखने की कोई छुपी हुई मंशा भी है?

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