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पोडु खेती को लेकर फिर टकराए आदिवासी किसान और वन अधिकारी, इस मुद्दे को सुलझाने में इतनी देरी क्यों?

बरसात का मौसम है, तो ज़ाहिर सी बात है कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से आदिवासी किसानों और वन विभाग के बीच झड़पों की ख़बरें लगातार आ रही हैं.

इस सीरीज़ में लेटेस्ट ख़बर तेलंगाना के खम्मम ज़िले से आ रही है, जहां मंगलवार को पेनुबल्ली मंडल में पोडु किसानों और वन अधिकारियों के बीच एक बार फिर हिंसक संघर्ष हुआ.

हालात इतने बिगड़ गए कि झड़प के बाद कुछ देर तक इलाक़े में तनाव की स्थिति बनी रही. दरअसल, पोडु किसानों ने पेनुबल्ली मंडल के चौदावरम गांव में वन अधिकारियों को उनकी ज़मीन पर प्रवेश करने से रोका. इस बात को लेकर वन अधिकारियों और आदिवासी किसानों के बीच तीखी नोकझोंक हुई, जिसके बाद यह झड़प काफ़ी हिंसक हो गई.

तनाव तब शुरू हुआ जब वन अधिकारी ने कुछ पोडु किसानों को अपने खेतों को जोतने से रोकने की कोशिश की, और उन्हें जमीन खाली करने के लिए कहा. अधिकारियों और पोडु किसान के बीच इसके बाद एक गरमागरम बहस हुई. किसानों ने दावा किया कि जमीन उनकी है क्योंकि वो कई सालों से इसे जोत रहे हैं.

इस कहासुनी ने जल्दी ही हिंसक रूप ले लिया, जिसमें कुछ किसान घायल हो गए. झड़प के दौरान कुछ किसान गिर गए. गुस्साए किसानों ने वन अधिकारियों के वाहनों पर भी हमला किया.

आदिवासी किसानों ने वन अधिकारियों पर गुस्सा जताते हुए आरोप लगाया कि जिस जमीन पर आदिवासी कई सालों से खेती कर रहे हैं, वन विभाग उस ज़मीन को उनसे छीनना चाहता है. इन आदिवासियों का कहना है कि वो अपने अस्तित्व और आजीविका के लिए इस ज़मीन पर निर्भर हैं, और इसी ज़मीन पर पैदा होने वाले खाद्यान्न से उनके परिवारों का पेट भरता है.

अधिकारी पोडु किसानों से खेती बंद करने के लिए कह रहे हैं क्योंकि वो दावा करते हैं कि ज़मीन वन विभाग की है. किसानों का आरोप है कि वन अधिकारी अनजाने में उन्हें रोक रहे हैं और आदिवासी गांवों में दहशत पैदा कर रहे हैं.

आदिवासी लंबे समय से सरकार से अपने इन मुद्दों को सुलझाने की मांग कर रहे हैं. वो चाहते हैं कि राज्य सरकार वन अधिकारियों को आदिवासी भूमि पर न आने के स्पष्ट निर्देश दे.

उधर, वन अधिकारियों का कहना है कि आदिवासी किसान उन्हें उनकी ड्यूटी करने से रोक रहे हैं, और आधिकारियों से खिलवाड़ कर रहे हैं. उनका कहना है कि पोडु भूमि के नाम पर आदिवासी किसान वन भूमि पर कब्जा कर रहे हैं.

वन विभाग यह भी दावा करता है कि वन भूमि की रक्षा करना उनका कर्तव्य है. लेकिन शायद वो ये भूल रहे हैं कि जंगल की जीतनी रक्षा और जंगलों की जितनी ज़रूरत आदिवासियों को है, उतनी शायद ही किसी और को.

दोनों तरफ़ से दलीलें आ रही हैं, लेकिन सच तो यह है कि संविधान भी आदासियों को जंगल की ज़मीन पर हक़ देता है. इन प्रावधानों को लागू करने के बजाय आदिवासियों के दावों को सीधे तौर पर खारिज कर देना कितना सही है?

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