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कांग्रेस-बीजेपी की नजर मध्य प्रदेश के 21% आदिवासी वोट पर

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(Madhya Pradesh Election) मध्य प्रदेश में सियासी बिसात बिछ चुकी है. सभी पार्टियां इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग चुकी हैं. बीजेपी की ओर से केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah) राज्य में तूफानी दौरे कर रहे हैं. तो दूसरी कांग्रेस की ओर से कमलनाथ पूरे प्रदेश में जनता और कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं.

इस बीच राज्य के 21 फीसदी आदिवासी वोटों पर अपनी नज़रें जमाते हुए कांग्रेस ने प्रमुख आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया को राज्य चुनाव अभियान समिति का प्रमुख नियुक्त किया है.

समिति में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के अलावा 30 से अधिक वरिष्ठ नेताओं को शामिल किया गया है. इसमें राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह, वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी और विवेक तन्खा सहित कई अन्य नेताओं को भी जगह दी गई है. साथ ही कमलनाथ की सरकार में रहे पूर्व मंत्रियों को भी जगह दी गई है. इसमें जीतू पटवारी, बाला बच्चन और तरुण भनोट को भी जगह मिली है.

इसके एक दिन पहले ही कांग्रेस ने पार्टी महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया था. कांग्रेस पार्टी ने इन समितियों में क्षेत्रीय संतुलन का ध्यान रखते हुए अपने वरिष्ठ नेताओं को स्थान देने की कोशिश कर रही है.

कांग्रेस आदिवासी वोटों को साधने की कोशिश में

कांतिलाल भूरिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है. कांग्रेस ने बीजेपी के आदिवासी एजेंडा को काउंटर करने के लिए कमलनाथ ने आदिवासी नेता भूरिया का नाम आगे बढ़ाया है. आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में भूरिया सीधा असर डालेंगे.

73 वर्षीय कांतिलाल भील जनजाति से हैं, जो मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है. ये 2004 से 2011 तक केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री थे.

मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की आबादी में बड़े पैमाने पर भील, गोंड, भिलाला, कोल, कोरकू, बैगा, सहरिया और भारिया जनजातियां शामिल हैं. वे कुल मतदाताओं का 21 प्रतीशत हैं और सिर्फ ओबीसी मतदाताओं के बाद दूसरा सबसे बड़ा समूह हैं, जो 50 प्रतिशत से अधिक मतदाता हैं.

कांग्रेस सड़क से लेकर विधानसभा तक आदिवासी वर्ग के मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही है. हाल ही में हुए सीधी पेशाब कांड को पार्टी ने आदिवासी वर्ग के अपमान का मुद्दा बनाकर आदिवासी स्वाभिमान रैली भी निकाली.

बीजेपी के भी सेंटर प्वाइंट में आदिवासी

मध्य प्रदेश चुनाव 2018 में कांग्रेस बहुमत के लिए जरूरी 116 सीटों के जादुई आंकड़े से दो सीट पीछे रह गई थी. कांग्रेस 114 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी तो बीजेपी को 109 सीटें मिलीं. कांग्रेस ने सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई.

लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में विधायकों की बगावत के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और सूबे में शिवराज 4.0 का आगाज हुआ.

शिवराज चौहान ने चौथे कार्यकाल के लिए पद संभालने के बाद ही पूरा फोकस आदिवासी मतदाताओं पर शिफ्ट कर दिया. आदिवासियों को लेकर बीजेपी का आउटरीच प्रोग्राम हो या सरकार की ओर से योजनाओं की शुरुआत, आदिवासी अस्मिता से जुड़ी बिरसा मुंडा और टंट्या मामा जैसी विभूतियों का सम्मान हो या राजा शंकर शाह रघुनाथ शाह के शहीदी दिवस पर आयोजन, भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का रानी कमलापति के नाम पर नामकरण, बीजेपी का आदिवासी और आदिवासी प्रतीकों पर फोकस साफ नजर आया.  

शिवराज सरकार ने आदिवासी समुदाय के बीच भगवान का दर्जा रखने वाले बिरसा मुंडा के नाम पर बिरसा मुंडा स्वरोजगार योजना, टंट्या मामा आर्थिक कल्याण योजना, मुख्यमंत्री जनजाति कल्याण योजना जैसी योजनाएं शुरू कीं. आदिवासियों के लिए पशुधन योजना भी शुरू की गई.

पीएम मोदी ने आदिवासी भावना से जुड़े राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में स्थित मानगढ़ धाम में आयोजित कार्यक्रम में शिरकत कर इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया.

आदिवासी वोटबैंक

मध्य प्रदेश में करीब 22 फीसदी मतदाता आदिवासी हैं. राज्य की कुल 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. करीब 90 सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासी मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यही कारण है कि चुनावी साल में बीजेपी और कांग्रेस का फोकस आदिवासी वोट पर शिफ्ट हो गया है.

2008 के विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ बीजेपी ने इनमें से 29 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस को 18 सीटें मिली थीं. वहीं 2013 में भाजपा ने 31 सीटें जीती थीं और कांग्रेस की सीटें 15 पर सिमट गईं. 2018 के चुनावों में कांग्रेस को 31 सीटों पर जीत मिली और बीजेपी को 15 सीटें मिली थीं.

2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से आदिवासी वोटर छिटके तो पार्टी कांग्रेस से मात खाकर सत्ता गंवा बैठी. एससी-एसटी के प्रभाव वाली करीब 90 सीटों में बीजेपी 35 के आसपास सिमट गई थी. 2023 के चुनाव में ऐसी स्थिति न हो, इसे लेकर बीजेपी सर्तक है. वहीं कांग्रेस पिछले विधानसभा में मिली सीटों को गंवाना नहीं चाहती है.  

सरकार में बरकरार रहने का बीजेपी का लक्ष्य हो या फिर सत्ता में वापसी का कांग्रेस की कोशिश, दोनों ही पार्टी की उम्मीदें आदिवासी क्षेत्रों से होकर निकलती हैं. जिस तरफ आदिवासी वोट बैंक का पलड़ा झुकेगा, सत्ता उसी के करीब होगी.

इसलिए इन दिनों प्रदेश की राजनीति और चुनावी तैयारियों में आदिवासियों का भरपूर ध्यान रखा जा रहा है. दोनों ही दल इस समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कवायद में जुटे हुए हैं

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