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अखिल भारतीय सम्मेलन में नई जनजातीय नीति की मांग

आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में रविवार को आयोजित एक दिवसीय अखिल भारतीय जनजातीय सम्मेलन में आदिवासी इतिहास अकादमी की स्थापना, आदिवासी भाषाओं, संस्कृतियों का विकास सुनिश्चित करने के लिए एक नयी जनजातीय नीति का आह्वान किया गया.

प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका, कार्यकर्ता और झारखंड महिला आयोग की पूर्व सदस्य डॉक्टर वासवी किड़ो ने आदिवासी भाषाओं और संस्कृति के विकास और ‘आदिवासी इतिहास अकादमी’ के गठन के लिए एक नई आदिवासी नीति बनाने का आह्वान किया है.

वासवी अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन की मुख्य अतिथि थीं और उन्होंने सम्मेलन का उद्घाटन किया. इस सम्मेलन में देश के विभिन्न राज्यों के आदिवासी नेताओं ने भाग लिया. ‘सोनोट जुआर’ (प्रकृति कायम रहे), ऊटे आबुवा (यह जमीन हमारी है), बीर आबुवा (जंगल हमारे हैं) और दिसुम आबुवा-देश (देश) हमारा है और ‘जय जोहार’ के नारे लगे.  

डॉक्टर किड़ो ने अपने भाषण में पारंपरिक जनजातीय चिकित्सा, व्यंजन और अन्य ज्ञान पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा, “दुनिया में 700 मिलियन से अधिक मूल निवासी या आदिवासी हैं, जिनमें से 200 मिलियन भारत में रहते हैं. औपनिवेशिक शासन के 75 साल बाद भी उनकी 7 हज़ार आदिवासी संस्कृतियों की उपेक्षा की गई और उनका दमन किया गया. भारत में 750 से अधिक जातीय जनजातियाँ हैं जिनमें से 75 सबसे अधिक असुरक्षित हैं. उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति गंभीर है.”

उन्होंने आगे कहा, “हालांकि यह अच्छा है कि एक आदिवासी महिला को भारत का राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला है. लेकिन वन अधिकार अभी भी लागू नहीं किए गए हैं और आदिवासियों पर दमन जारी है.”

एक प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, किड़ो ने जोर दिया कि आदिवासियों को अपने अधिकारों पर लड़ने के लिए खुद को संगठित करना चाहिए, यह देखते हुए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेतृत्व वाली ताकतें आदिवासियों को कथित तौर पर विभाजित कर रही हैं और उनके बीच दरार पैदा कर रही हैं.

किड़ो ने कहा, ‘‘भारत में आदिवासी सरकार की नीति के कारण पीड़ित हैं जो ‘विकास प्रेरित विस्थापन’, वनों और प्राकृतिक संपदा की लूट, भूमि हड़पने, प्रकृति का विनाश, सरना जैसे स्वदेशी धर्मों को पहचानने में विफलता, उन्हें जबरन हिंदू धर्म में आत्मसात करने का प्रयास और उनके संवैधानिक तथा कानूनी अधिकारों को लागू करने में नाकामी से प्रभावित हैं.’’

वहीं पूर्व केंद्रीय सचिव ईएएस सरमा ने कहा कि सरकार आदिवासियों पर बुलडोज़र चला रही है और उनके अधिकारों पर हमला कर रही है. सरमा ने कहा, “यह सरकार इतनी जनविरोधी है कि यह राष्ट्रीय एसटी आयोग से भी परामर्श नहीं करती है.”

आदिवासी मुद्दों पर वरिष्ठ अधिवक्ता और लेखक, पाला त्रिनाध रा ने अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के लिए संवैधानिक सुरक्षा की व्याख्या की और बताया कि कैसे सरकार कथित रूप से निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पक्ष लेने के लिए उन्हें कमजोर कर रही है.

आदिवासियों की अन्य अत्यावश्यक जरूरतों पर जोर के अलावा, सम्मेलन ने चार प्रस्ताव भी पारित किए हैं. इनमें मध्य प्रदेश के बुरहानपुर, छत्तीसगढ़ और देश के अन्य हिस्सों में आदिवासियों के दमन की निंदा की गई.

इसके अलावा प्रस्ताव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद बृजभूषण सिंह की गिरफ्तारी की मांग, मणिपुर में कथित आरएसएस प्रायोजित हिंसा और आंध्र प्रदेश के वाकापल्ली में अर्धसैनिक बलों द्वारा आदिवासी महिला के सामूहिक बलात्कार की निंदा की गई.

सम्मेलन में 11 राज्यों के 600 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया और 15 सदस्यीय फोरम समिति के गठन को भी मंजूरी दी.

सम्मेलन का महत्व

देश में एक साल बाद यानि मई 2024 तक लोकसभा के चुनाव होंगे. इस पृष्ठभूमि में कई आदिवासी संगठनों का एक मंच पर आना एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण घटना है.

इस तरह के कुछ और सम्मेलन अगर होते हैं और आदिवासियों के मुख्य मुद्दों को चिन्हित किया जा सके तो राजनीतिक दलों पर इन मुद्दों को अपने घोषणापत्रों में शामिल करने का दबाव बढ़ेगा.

इस तरह के सम्मेलन आदिवासी समुदायों को सांप्रदायिक मुद्दों पर बाँटने के प्रयासों से भी बचाने में मदद करते हैं.

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