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गोवारी को जनजाति का दर्जा नहीं, अदालत नहीं संसद कर सकती है तय – सुप्रीम कोर्ट

आदिवासी समुदाय या समूह को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखने के मामलों में अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. यह अधिकार संविधान के आर्टिकल 342(1) के तहत सिर्फ़ राष्ट्रपति के पास है. अदालत यह नहीं कह सकती कि राष्ट्रपति के आदेश में किसी आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने यह मत देते हुए गोवारी समुदाय को जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का आर्टिकल 342(2) यह स्पष्ट करता है किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा जाएगा, यह तय करने का अधिकार सिर्फ़ संसद को है. इसके लिए संसद से क़ानून बनाया जाना ज़रूरी है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस तरह के मामले अदालतों के दायरे से बाहर हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि अदालतों को इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप से बचना चाहिए, क्योंकि ये मामले न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं.

बॉम्बे हाईकोर्ट का फ़ैसला

दरअसल बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने 14 अगस्त 2018 को एक फैसला दिया था. इस फैसले में अदालत ने “गोवारी’ और “गोंड-गोवारी’ समुदायों को एक ही माना था. नागपुर खंडपीठ का मानना था कि गोवारी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के सभी लाभ मिलने चाहिए. नागपुर खंडपीठ ने आदिवासी गोंड-गोवारी (गोवारी) सेवा मंडल व अन्य की याचिका पर यह फैसला लिया था. राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

1995 से गोवारी समुदाय को महाराष्ट्र सरकार ने विशेष पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा था. केंद्र सरकार ने भी 15 जून 2011 को गोवारी को पिछड़ा वर्ग का दर्जा दे दिया था. राज्य में यानि महाराष्ट्र में इस समुदाय को पिछड़ा वर्ग के लाभ दिए जा रहे थे.
दरअसल नागपुर खंडपीठ के फ़ैसले का आधार था कि 24 अगस्त, 1985 तक गोवारी वर्ग के लोगों को “गोंड-गोवारी’ के तहत जाति प्रमाण-पत्र दिया जाता था. लेकिन इसके बाद सरकार ने गोंड और गोवारी वर्ग को अलग-अलग परिभाषित करना शुरू कर दिया.

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