Mainbhibharat

भूख और कुपोषण से दम तोड़ती आदिवासी और दलित औरतें

3 सितंबर को ओडिशा में एक 33 वर्षीय आदिवासी महिला रंजीता मांझी ने एक बच्चे को जन्म दिया. लेकिन वो खुश नहीं थी क्योंकि उसने डिलीवरी के लिए 30 हज़ार रुपये का कर्ज लिया था. 

दरअसल रंजीता मांझी गंभीर रूप से एनीमिया से पीड़ित थी. इसलिए उनकी नॉर्मल डिलीवरी संभव नहीं थी. जन्म के चार दिन बात बच्चे की मौत भी हो गई.  

रंजीता मांझी ने अपने आंसू पोछते हुए कहा कि मुझे नहीं पता कि मैं अपना कर्ज कैसे चुकाऊं. जिस बच्चे के लिए मैंने कर्ज लिया है वो भी अब मेरे पास नहीं है. उन्होंने कहा कि वे यह भी नहीं जानती कि बच्चे की मौत किस वजह से हो गई है. 

इतना ही नहीं भवानीपटना के जिला अस्पताल जहां ऑपरेशन से रंजीता का बच्चा पैदा हुआ था वहां के डॉक्टरों कहना है कि उन्हें भी नहीं पता कि बच्चे की मौत कैसे हुई. लेकिन एकता परिषद एनजीओ की कार्यकर्ता रोशनी मोहंती बच्चे की मौत के लिए कुपोषण की ओर इशारा करती हैं. 

2009 में रंजीता मांझी और उनका परिवार कालाहांडी के रामपुर गांव को छोड़कर मदनपुर रामपुर कस्बे में आ गए थे. रंजीता और उनके पति कुई भाषी खोंड जनजाति से हैं. यह परिवार एक भूमिहीन आदिवासी परिवार है. जंगल तक कम पहुंच होने की वजह से वे आजीविका के अवसरों की तलाश में शहर में चले गए. यहां आ कर यह परिवार मजदूरी कर के अपना गुजारा करता है. 

लॉकडाउन ने और बढ़ा दिया संकट

पिछले साल लगे कोविड-19 लॉकडाउन के परिणामस्वरूप हजारों लोगों की आजीविका पर जबरदस्त असर पड़ा. अनगिनत हाशिए पर पड़े लोगों की तरह रंजीता मांझी के पति की भी दूसरी कोरोना लहर में नौकरी चली गई.

पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया की एक स्टडी के मुताबिक लॉकडाउन लागू होने के बाद से ग्रामीण भारत में 50 फीसदी परिवारों को अपने खाने में कटौती करने पर मजबूर होना पड़ा था. जबकि 68 फीसदी परिवारों ने अपने खाने में सब्जी या दाल कम कर दी थी.

30 वर्षीय निशा  भी पिछले दो सालों से एनीमिया से पीड़ित हैं. उन्होने बताया, “मेरी पसलियों में असहनीय दर्द है. लेकिन मैं डॉक्टर के पास नहीं जा सकती हूं क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं हैं. सिर्फ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हमें कुछ मदद दी है और हमें कोई अन्य राशन नहीं मिला.”

निशा एक दलित है और नई दिल्ली के शाहदरा इलाके में एक झुग्गी में रहती है. वह एक कचरा बीनने वाले के रूप में काम करती है और कोरोना की दूसरी लहर के चरम के दौरान हर दिन बायोमेडिकल कचरे का कम से कम एक बैग उठाती है. 

लेकिन ज्यादातर दिन वो सिर दर्द, पसली में दर्द और थकान से परेशान रहती हैं और इस वजह से वो काम पर नहीं जा पाती.

सिर्फ चावल का क्या करें?’

स्टेट ऑफ वर्किंग इन इंडिया 2021 की रिपोर्ट से पता चलता है कि कोरोनोवायरस महामारी के दौरान 83 फीसदी महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी. जबकि 47 फीसदी महिलाओं और 7 फीसदी पुरुषों के नौकरी फिर मिलने की संभावना भी नहीं है. 

नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की बीना पल्लीकल कहती हैं कि स्टडी से पता चलता है कि 56 फीसदी दलित और 59 फीसदी आदिवासी महिलाएं एनीमिक हैं. जबकि राष्ट्रीय औसत 53 फीसदी है. 2016 में भारत उन 180 देशों में 170वें स्थान पर था जहां महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन में कहा गया है कि दलित महिलाएं प्रमुख जाति की महिलाओं की तुलना में 15 साल कम उम्र में मरती हैं.

25 वर्षीय दिशांती मांझी ओडिशा राज्य के कालाहांडी जिले के एक आदिवासी गांव खलियामुंडा की रहने वाली हैं. दिशांती अपने गांव के कई अन्य लोगों की तरह वन उपज पर बहुत अधिक निर्भर है. वह खेतों में काम करती थी और सियाली के पत्ते बेचती थी. उन्हें जो सरकारी राहत पैकेज मिले उनमें सिर्फ चावल और आटा था जो कि पोषण के पूरक के लिए कुछ भी नहीं था.

दिशांती ने कहा, “स्थानीय बाजार में वनोपज और सियाली के पत्ते बेचने के बाद मेरे पास चावल और सब्जियां हुआ करती थीं. लेकिन वह अब बंद है और मेरे पास पैसे कमाने या उपज खरीदने का कोई रास्ता नहीं है. हमें काम भी नहीं मिल रहा है. सरकार राहत के नाम पर सिर्फ चावल दे रही है लेकिन सिर्फ चावल का क्या करें? 

दिशांती ने कहा, “मेरे बच्चे घर पर हैं और मेरे पति की भी नौकरी नहीं है. मैं अब घर पर और जंगलों में बहुत काम करती हूं जब भी मैं कर सकती हूं, जैसे मैं दो साल पहले करती थी. लेकिन इसके बावजूद मैं खाना जुटा पाने में असमर्थ हूं. मैं कई रात भूखी भी सो गई हूं और ज्यादातर मैं सिर्फ एक वक्त का ही भोजन करती हूं ताकि मेरे पति और बच्चे ज्यादा खाना खा सके.”

महिलाएं सबसे आखिरी और सबसे कम खाती हैं

स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क और हंगर वॉच के राजेंद्रन नारायण कहते हैं कि अनौपचारिक क्षेत्र में भी महिलाओं के लिए नौकरी का नुकसान अनुपातहीन रहा है. उन्होंने कहा कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए स्थिति विशेष रूप से गंभीर है.

उन्होंने कहा, “देखभाल और घरेलू काम के साथ महिलाओं पर काम का बोझ बढ़ गया है लेकिन वेतन कम हो गया है. घरों में महिलाएं खाने में सबसे आखिरी और खाने में सबसे कम होती हैं. घर पर भूख के संकट का मतलब है कि महिलाओं के पास खाने के लिए अपने आप कम हो जाएगा.”

उन्होंने कहा कि हम एक ऐसे संकट को देख रहे हैं जो अभी स्पष्ट नहीं हो सकता है. लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण पर इसका लंबे वक्त तक प्रभाव होगा. इसलिए हमें अभी इसे रोकना होगा. 

संघीय सरकार ने कोविड के प्रभावों को कम करने के लिए पिछले साल मार्च में राहत पहल के रूप में राशन कार्ड धारकों को मुफ्त खाद्यान्न वितरण की घोषणा की. लेकिन इसे अपर्याप्त माना गया क्योंकि 2020 में सिर्फ चावल और दाल को शामिल किया गया था. 

जबकि दूसरी लहर के लॉकडाउन के दौरान ऐसे किसी राहत पहल की घोषणा नहीं की गई थी.

हाशिये पर रहने वाली महिलाओं को न सिर्फ रियायती या मुफ्त खाद्यान्न प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ा है बल्कि सरकार द्वारा बैंक अकाउंट में ट्रांसफर की गई राशि के लिए भी करना पड़ा है.

छत्तीसगढ़ में दलित आदिवासी मंच के राजिम केतवास ने  कहा, “मैंने कई महिलाओं से बात की तो पता चला कि वो पैसे निकालने के लिए बैंकों तक पहुंचने के दौरान वायरस के संपर्क में आने से डरती हैं और बहुतों को उनका हक ही नहीं मिला है. आमतौर पर इनका वन विभागों के साथ संघर्ष होता है.”

हाशिए के समुदायों की गर्भवती महिलाओं में एनीमिया के बढ़ने का कारण राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत नकद हस्तांतरण में बदलाव को भी माना जा सकता है.

स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क और हंगर वॉच के नारायण ने कहा, “एनएफएसए की मांग है कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को सालाना 6,000 रुपये का नकद हस्तांतरण दिया जाना चाहिए. लेकिन केंद्र सरकार ने एनएफएसए को उलट दिया और इसे प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के साथ बदल दिया जो इस हस्तांतरण की राशि को 5,000 तक कम कर देता है.” 

2020-21 के लिए सरकार के बजट ने भी योजना के लिए आवंटित राशि में 48 फीसदी की भारी कमी की है. बिहार राज्य के ग्रामीण हिस्सों में की गई एक स्टडी से पता चला है कि गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं के 41 फीसदी परिवारों ने महामारी शुरू होने के बाद प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर जांच का लाभ उठाने में असमर्थ होने की सूचना दी है.

दक्षिणी राज्य कर्नाटक में स्थित सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता और डॉक्टर सिल्विया करपगम बताती हैं कि पोषण की कमी का महिलाओं पर और विशेष रूप से हाशिए के समुदायों की महिलाओं पर पीढ़ी दर पीढ़ी प्रभाव पड़ता है.

उन्होंने कहा, “जब हाशिए के समुदाय की एक युवा महिला गर्भवती हो जाती है तो वह अपनी जाति, वर्ग और लिंग के नुकसान के कारण पहले से ही कुपोषित होती है. बच्चा एक वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले ही कुपोषित हो जाता है और यह किशोरावस्था तक जारी रहता है.”

करपगम का कहना है कि हाशिए की महिलाओं में कुपोषण को दूर करने के लिए जाति के मुद्दे को संबोधित करना अहम है.

उन्होंने कहा, “हाशिए के समुदायों के परिवारों के लिए पोषक तत्वों से भरपूर भोजन तक पहुंच कम की जा सकती है. तथ्य यह है कि सरकार फिलहाल जो पेशकश कर रही है वह स्वाभाविक रूप से एक व्यक्ति के लिए पूर्ण पोषण तक पहुंचने के लिए पर्याप्त नहीं है. अंडा, मांस, मुर्गी, दूध उत्पाद किसी व्यक्ति के आहार से सबसे पहले दूर हो जाते हैं जब वे पैसे तक पहुंच खो देते हैं और ये राहत में सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए.” 

Exit mobile version