हाल ही में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के बैतूल ज़िले में स्थित भैंसदेही में एक तीन दिवसीय कैंप का आयोजन किया. ये कैंप आदिवासी अधिकारों व सशक्तिकरण के उद्देश्य से चलाया गया था.
मंगलवार को राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह यहां पहुंचे. अपने संबोधन के माध्यम से उन्होंने बीजेपी पर आदिवासी पहचान को मिटाने का आरोप लगाया.
उन्होंने धर्म परिवर्तन के मुद्दे को भी एक बार फिर हवा देने की कोशिश की.
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह ने कहा, हम सब मध्य एशिया से आए हैं. पहला और असली हक आदिवासियों का है.
उन्होंने आदिवासियों को प्रकृति पूजक बताते हुए कहा कि संविधान आदिवासियों को उनके विश्वासों का पालन करने का पूरा अधिकार देता है.
इसके बाद दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि बीजेपी की मानसिकता संकीर्ण है और वह धर्मांतरण की राजनीति करती है.
उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा न तो संविधान को समझती है और न ही भारत की वास्तविक परंपरा को.
उन्होंने कहा कि बीजेपी आदिवासियों को वनवासी कहकर उनकी पहचान मिटाना चाहती है.
सिंह ने कहा कि अगर धर्मांतरण अपनी मर्ज़ी से और आस्था के कारण किया गया हो तो यह अपराध नहीं है.
उन्होंने ये भी माना कि जबरन या प्रलोभन से धर्मांतरण स्वीकार्य नहीं है.
सिंह का कहना है कि भाजपा केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस मुद्दे को उठाती है और इसे अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए इस्तेमाल करती है.
कुछ दिनों पहले विपक्षी नेता उमंग सिंघार ने भी छिंदवाड़ा के एक आदिवासी कार्यक्रम में इस मुद्दे पर बीजेपी की आलोचना की थी.
उन्होंने कहा था कि गर्व से कहो हम आदिवासी हैं, हिंदू नहीं.
सिंघार खुद राज्य की सबसे बड़ी जनजाति भील से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने कहा था कि बीजेपी और आरएसएस आदिवासी पहचान को मिटाकर उन्हें हिंदुओं में शामिल करना चाहते हैं.
उन्होंने बीजेपी पर असल मुद्दों से ध्यान भटकाने का भी आरोप लगाया था.
आदिवासी बनाम वनवासी की बहस और धर्मांतरण और डीलिस्टिंग के मुद्दे ऐसे मुद्दें हैं जिन पर बीते कई सालों से बहस चल रही है.
इन मुद्दों पर अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस – बीजेपी और अन्य राज्य स्तरीय पार्टियों के बीच समय-समय पर आरोप-प्रत्यारोप भी चलते रहते हैं.
हालांकि धर्मांतरण और डीलिस्टिंग का मुद्दा वाकई बहुत बड़ा है.
ये बात स्पष्ट है कि ‘आदिवासी बनाम वनवासी’, धर्मांतरण और डीलिस्टिंग जैसे मुद्दे लंबे समय से आदिवासी क्षेत्रों में राजनीति का हिस्सा रहे हैं और आज भी बहस के केंद्र में हैं.
लेकिन इन बहसों के शोर के बीच यह सवाल अहम है कि क्या आदिवासी समुदाय की बुनियादी ज़रूरतें जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार को वह प्राथमिकता मिल रही है जो मिलनी चाहिए?