Mainbhibharat

द्रोपदी मूर्मु से डरी ममता बनर्जी, वैसे यह डर अच्छा है

एनडीए की राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला द्रोपदी मूर्मु ने कई समीकरण बदल कर रख दिए हैं. विपक्ष की तरफ़ से राष्ट्रपति पद पर एक साझा उम्मीदवार देने का श्रेय लेने वाली ममता बनर्जी द्रोपदी मूर्मु के नाम की घोषणा के बाद से बैकफ़ुट पर हैं. 

पिछले सप्ताह ममता बनर्जी ने बयान दिया था कि अगर बीजेपी सरकार की तरफ़ से समय पर पहल की गई होती तो द्रोपदी मूर्मु सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बन सकती थीं.

अब यह तय किया गया है कि विपक्ष की तरफ़ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा पश्चिम बंगाल में प्रचार करने के लिए नहीं जाएँगे. इस बारे में बताया गया है कि वहाँ पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद ही राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए गतिविधियों की निगरानी कर रही हैं इसलिए यशवंत सिन्हा को वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है.

लेकिन सच्चाई ये है कि ममता बनर्जी को डर है कि द्रोपदी मूर्मु के खुले विरोध की वजह से उनके आदिवासी वोट बैंक में दरार आ सकती है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लिए आदिवासी वोट बैंक काफ़ी अहमियत रखता है.

द्रोपदी मूर्मु वैसे भी संताल आदिवासी समुदाय से हैं. संताल आदिवासी समुदाय पश्चिम बंगाल की कुल आदिवासी समुदाय का कम से कम 80 प्रतिशत है. ममता बनर्जी नहीं चाहती हैं कि राष्ट्रपति पद के चुनाव की प्रतीकात्मक लड़ाई के चक्कर में वो राज्य की अपनी लड़ाई को कमज़ोर कर लें.

ममता बनर्जी द्रोपदी मूर्मु के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के बाद से डरी हुई हैं

राज्य की राजनीति को ध्यान से देखें तो उतर बंगाल और जंगलमहल इलाक़े में आदिवासी आबादी चुनाव में बेहद महत्वपूर्ण है. ममता बनर्जी को लग रहा है कि द्रोपदी मूर्मु के उम्मीदवार बनने के बाद खुल कर यशवंत सिन्हा को राज्य में प्रचार के लिए बुलाना आदिवासियों को नाराज़ कर सकता है.

इस पूरे मामले में मज़े की बात यह है कि विपक्ष की तरफ़ से यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे यह ममता बनर्जी ने ही प्रस्तावित किया था. अब वो ही यशवंत सिन्हा को छोड़ कर पीछे हट गई हैं. 

उधर झारखंड में भी यशवंत सिन्हा प्रचार करने नहीं जाएँगे. झारखंड यशवंत सिन्हा का गृह राज्य है. लेकिन झारखंड में भी मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए स्थिति मुश्किल है. 

द्रोपदी मूर्मु जब झारखंड पहुँची थी तो मुख्यमंत्री ने हाथ जोड़ कर उनके सामने झुक उनका अभिवादन किया था. ये तस्वीरें मीडिया में छपी हैं. 

विपक्ष के लिए राष्ट्रपति का चुनाव एक प्रतीकात्मक औपचारिकता ही है. लेकिन जैसे जैसे समय बीत रहा है उसके लिए इस चुनाव में एक सम्मानजनक मुक़ाबला बनाना भी मुश्किल हो रहा है.

विपक्ष के लिए महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से वैसे भी स्थिति काफ़ी बदल गई है. लेकिन जिस तरह से ममता बनर्जी पीछे हटी हैं वह सिर्फ़ आदिवासी का भरोसा खोने के डर से है.

आदिवासियों के लिए संविधान में संसद, विधानसभाओं, शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है. इसके अलावा आदिवासियों को कई तरह की सुरक्षा प्रदान की गई है. 

संविधान आदिवासी इलाक़ों के लिए ख़ास प्रावधान करता है जिससे आदिवासी के जल, जंगल और ज़मीन के साथ साथ उसकी संस्कृति को भी बचाया जा सके.

लेकिन संवैधानिक सुरक्षा के बावजूद आदिवासी के ख़िलाफ़ अन्याय होता रहा है. इसकी बड़ी वजह शायद ये रही है कि एक राजनीतिक दबाव समूह के तौर पर आदिवासी संगठित नहीं हो पाया है. 

अब जब पहली बार राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी उम्मीदवार अगर राजनीतिक दलों में डर पैदा कर पा रहा है तो यह डर अच्छा है! आख़िर कभी तो आदिवासी मतदाता की नाराज़गी के भी कुछ तो मायने होने ही चाहिएँ. 

Exit mobile version