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एंबुलेंस न मिलने के कारण पिता को थैले में ले जाना पड़ा शिशु का शव

महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के जोगलवाड़ी गांव में रहने वाले सकराम कावर और उनकी पत्नी अविता की ज़िंदगी में तीसरे बच्चे के आने की खुशी थी.

मज़दूरी करने वाले ये आदिवासी दंपति हाल ही में ठाणे के भिवंडी से लौटकर गांव आए थे ताकि सुरक्षित तरीके से बच्चे का जन्म हो सके. लेकिन 11 जून की सुबह जब अविता को प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो उनकी उम्मीदें टूटने लगीं.

सुबह से कई बार एम्बुलेंस के लिए कॉल किया गया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. मदद के लिए शुरुआत में गांव की आशा वर्कर भी नहीं मिल पाईं.

बाद में उन्होंने एक निजी गाड़ी का इंतज़ाम किया. इस गाड़ी से अविता को खोडाला के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया.

रास्ते में गर्भ में बच्ची की हरकत महसूस हुई लेकिन अस्पताल पहुंचने के बाद अविता को एक घंटे तक इंतजार करवाया गया. फिर वहां से उन्हें मोखाडा के ग्रामीण अस्पताल रेफर कर दिया गया.

अस्पताल में हुई लापरवाही

मोखाडा पहुंचने पर अविता को एक कमरे में अलग कर दिया गया. जब सकराम ने इसका विरोध किया तो अस्पताल प्रशासन ने पुलिस बुला ली.

सकराम का आरोप है कि पुलिस ने उनकी पिटाई की.

बाद में डॉक्टरों ने बताया कि गर्भ में बच्ची की धड़कन नहीं सुनाई दे रही है और उन्हें नासिक सिविल अस्पताल रेफर कर दिया गया.

मोखाडा अस्पताल की एम्बुलेंस खराब थी इसलिए 25 किलोमीटर दूर के आसे गांव से एम्बुलेंस मंगवानी पड़ी.

जन्म से पहले मर चुकी थी बच्ची

देर रात नासिक अस्पताल पहुंचने के बाद, 12 जून को रात 1:30 बजे अविता ने एक मृत बच्ची को जन्म दिया.

सुबह सकराम को बच्ची का शव सौंप दिया गया. लेकिन अस्पताल ने शव को ले जाने के लिए एम्बुलेंस देने से इनकार कर दिया.

बस में 90 किलोमीटर तक ले जाना पड़ा शव

बेबस पिता ने 20 रुपये में एक प्लास्टिक का थैला खरीदा. बच्ची के शव को कपड़े में लपेटा और उसे लेकर महाराष्ट्र राज्य परिवहन (MSRTC) की बस में 90 किलोमीटर का सफर तय किया.

उसी दिन गांव में बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

13 जून को सकराम फिर नासिक पहुंचे ताकि पत्नी को वापस ला सकें. उनका आरोप है कि इस बार भी उन्हें एम्बुलेंस नहीं दी गई.

शारीरिक तौर पर बेहद कमज़ोर होने के बावजूद मजबूरी में अविता को बस में बैठकर गांव लौटना पड़ा. सकराम ने यह भी कहा कि अस्पताल ने पत्नी को कोई दवा तक नहीं दी.

अस्पताल का पक्ष

मोखाडा अस्पताल के डॉक्टर ने पुष्टि की कि बच्ची की मौत पहले ही हो चुकी थी और एम्बुलेंस खराब थी इसलिए दूसरी जगह से मंगवाई गई.

नासिक के सिविल सर्जन ने कहा कि सकराम को एम्बुलेंस ऑफर की गई थी लेकिन उन्होंने खुद मना किया, हालांकि सकराम इस बात से इनकार कर रहे हैं.

सकराम और अविता की कहानी उन हजारों आदिवासी परिवारों की सच्चाई है जिन्हें समय पर स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पातीं.

इस घटना ने साफ कर दिया है कि दूर-दराज के गांवों में रहने वाले आदिवासियों को स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना अब भी एक बड़ी चुनौती है. अगर समय पर एम्बुलेंस और इलाज मिल जाता तो शायद एक मासूम की जान बच सकती थी.

(Image is for representation purpose only)

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