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आदिवासियों के स्कूल को नहीं मिलती है ज़मीन, वाह मेरी सरकार

देश के सभी आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का अच्छा प्रबंध करने के लिए केन्द्र सरकार ने एकलव्य मॉडल रेसिडेंसियल स्कूलों की स्थापना एक बड़ा कदम है.

2018 में सरकार ने यह फ़ैसला किया था कि 2022 तक इन स्कूलों की संख्या को बढ़ा कर 740 पहुंचाना है. लेकिन अफ़सोस की 3 साल बाद ऐसा लग रहा है कि यह लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन है. 

सरकार के आंकड़े के अनुसार अभी तक 632 एकलव्य मॉडल रेसिडेंसियल स्कूलों (EMRS) को मंजूरी दी जा चुकी है. लेकिन इन में से सिर्फ़ 367 स्कूल ही चालू हालत में हैं. 

लोक सभा महाराष्ट्र और तमिलनाडु के दो सांसदों हेमंत तुकारम गोडसे और ऐकेपी चिनराज ने इस सिलसिले में एक सवाल पूछा था. इस सवाल के जवाब में जनजाति कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने यह जानकारी सदन के पटल पर रखी है. 

एकलव्य रेसिडेंसियल स्कूलों को जवाहर नवोदय विद्यालयों के मॉडल पर तैयार किया जा रहा है. इन स्कूलों का मक़सद आदिवासी छात्रों को उनके अपने परिवेश में ही शिक्षा की बेहतर सुविधा देना है. 

कोविड के दौरान आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा का काम पूरी तरह से ठप्प है

फ़िलहाल चालू 367 इन स्कूलों में कम से कम 85 हज़ार आदिवासी छात्र पढ़ रहे हैं. जिन इलाक़ों में कुल आबादी का आधा या फिर कम से कम 20000 जनसंख्या है, उन इलाकों में केन्द्र सरकार इन स्कूलों की स्थापना करती है. 

इन स्कूलों की मंजूरी के बाद भी शुरूआत नहीं होने का एक सबसे बड़ा कारण ज़मीन है. केन्द्र सरकार के नियमों के अनुसार इन स्कूलों के लिए राज्यों को ज़मीन उपलब्ध करानी है.

लेकिन कई राज्यों में या तो इन स्कूलों के लिए जमीन नहीं दी जा रही है, या फिर उसमें देरी की जा रही है. 

संसद के लगभग हर सत्र में लोक सभा और राज्य सभा में सांसद यह सवाल उठाते हैं. हर बार मंत्रालय की तरफ़ से डिटेल में जवाब दिया जाता है. लेकिन जवाब में ना तो आंकड़े बदलते हैं और ना ही तस्वीर बदलती है.

जब किसी ओद्योगिक घराने को ज़मीन की ज़रूरत होती है, या फिर केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए किसी और उद्देश्य के लिए ज़मीन की ज़रूरत होती है, तो फिर कोई सीमाएं नहीं होती हैं.

लेकिन जब स्कूलों के लिए ज़मीन की ज़रूरत होती है, तो केन्द्र और राज्य सरकारें किसी जल्दबाज़ी में नहीं होती हैं. 

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