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जंगलों को आदिवासी आबादी के प्राकृतिक आवास के रूप में देखना होगा: सुनीता नारायण

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (Centre for Science and Environment) की महानिदेशक सुनीता नारायण (Sunita Narain) ने गुरुवार को कहा कि जंगलों को जनजातीय समुदायों के प्राकृतिक आवास के रूप में देखना होगा और वन संरक्षण पर स्थानीय आजीविका के एक साधन के तौर पर विचार किया जाना चाहिए.

सुनीता नारायण ने कहा कि वन संरक्षण को जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के संदर्भ में देखना होगा. उन्होंने कहा, ‘‘हमारे सामने जलवायु परिवर्तन का मुद्दा है. पेड़ जलवायु परिवर्तन का समाधान खोजने के बहुत महत्वपूर्ण कारक हैं और प्रदूषण को कम करने में वनों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है.’’

भुवनेश्वर में सीएसई द्वारा ‘द फाइट ओवर ए राइट’ विषय पर आयोजित वर्कशॉप को संबोधित करते हुए नारायण ने कहा कि जब प्राकृतिक आपदाओं की बात आती है तो देश गहरे संकट में होता है और शहरों में हरित क्षेत्रों को योजनाबद्ध तरीके से विकसित किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘‘अगर सरकार नए कानून ला रही है तो वह आदिवासियों को क्या मुआवजा दे रही है? हमारी नीति में कहीं न कहीं कमी है और हमें इस बारे में बात करनी होगी. वन भी आजीविका का एक प्राकृतिक स्रोत हैं.’’

नारायण ने कहा कि जीवाश्म ईंधन के उत्सर्जन को कम करने और स्थानीय आजीविका के निर्माण के लिए वनों को एक स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

इससे पहले, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा था कि नए वन संरक्षण नियम, वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों को “कमजोर या उल्लंघन नहीं करते” हैं. इस चिंता को स्वीकार करते हुए कि नए नियम वनवासियों की सहमति के बिना जंगलों को काटने की अनुमति देते हैं.

पर्यावरण मंत्रालय ने 2003 में अधिसूचित पहले के नियमों को बदलने के लिए 28 जून को वन (संरक्षण) अधिनियम (Forest (Conservation) Act) के तहत वन (संरक्षण) नियम, 2022 (Forest (Conservation) Rules, 2022) को अधिसूचित किया.

वन (संरक्षण) अधिनियम को 1980 में देश के जंगलों के संरक्षण में मदद करने के लिए अधिनियमित किया गया था. यह केंद्र की पूर्व स्वीकृति के बिना वनों के गैर-आरक्षण या गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग को सख्ती से प्रतिबंधित और नियंत्रित करता है.

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