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झूठे मुक़दमों में पकड़े गए आदिवासियों को आज़ाद करने के लिए याचिका

दिल्ली स्थित आदिवासी अधिकार संगठन इंडिजिनियस राइट्स एडवोकेट सेंटर (IRAC) ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और आदिवासी बहुल राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर आदिवासियों के खिलाफ दर्ज “सभी मामलों” की समीक्षा करने साथ ही झूठे और तुच्छ मामलों को वापस लेने की मांग की है.

शुक्रवार को मानवाधिकार दिवस की पूर्व संध्या पर केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी गई इस चिट्ठी की प्रतियों के साथ हर राज्य में सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग या समिति के गठन का भी प्रस्ताव है. जो आदिवासियों के खिलाफ मामलों की समीक्षा करेगा और समयबद्ध तरीके से आदिवासी विचाराधीन कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करेगा.

IRAC के कार्यकारी निदेशक दिलीप चकमा ने कहा, “अब तक हमने झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेजे हैं. हम जल्द ही अन्य राज्यों को पत्र भेजेंगे.”

IRAC ने कहा है कि भारत में गरीब आदिवासियों के खिलाफ अपराधीकरण और झूठे मामले दर्ज करना बहुत आम बात है. सैकड़ों आदिवासी सिर्फ न्याय प्रणाली तक पहुंच बनाने में असमर्थता या अपनी जमानत राशि का भुगतान करने में गरीब होने के कारण जेल में सड़ रहे हैं.

विशेष संवैधानिक और कानूनी संरक्षण होने के बावजूद कई जनजातियां अपराधीकरण, हिंसा और झूठे मुकदमे की शिकार हुई हैं, जिसने उनके जीवन को नष्ट कर दिया है. उन्हें “जल, जंगल और जमीन” के अपने सामूहिक अधिकारों का बचाव करने के लिए अपराधी ठहराया जाता है.

दिलीप चकमा ने कहा कि जिन कार्यकर्ताओं ने स्थानीय ग्राम सभा की सहमति के बिना औद्योगिक या खनन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध किया है उन्हें अक्सर राज्य की हिंसा का सामना करना पड़ा है जो कि बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.

पत्र में कहा गया है, “संघर्ष प्रभावित जिलों में गरीबी में जीवन जीने वाले आदिवासी ग्रामीणों को सुरक्षा बलों/पुलिस और माओवादियों के बीच सैंडविच बना दिया गया है. एक तरफ जहां माओवादी उन्हें मारते, अपहरण और प्रताड़ित करते हैं. वहीं दूसरी तरफ पुलिस माओवादी कैडर या समर्थक होने के संदेह पर उनके खिलाफ झूठे मामले दर्ज करती है. गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 और अन्य कानून के तहत कई आदिवासियों पर आरोप लगाए गए हैं या गिरफ्तारी की गई है.”

पत्र में आगे कहा गया है, “आतंकी मामलों के अलावा बहुत से आदिवासियों को पुलिस ने चोरी के मामलों या अन्य छोटे अपराधों में झूठा फंसाया है. इसी तरह, निर्दोष आदिवासियों को जंगल/वन्यजीव संबंधी अपराधों में झूठा फंसाया गया, गिरफ्तार किया गया और प्रताड़ित किया गया. कर्नाटक में करियप्पा उर्फ करिया (49) नाम के एक आदिवासी को कथित रूप से शिकार करने और हिरण का मांस रखने के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के बाद अक्टूबर 2022 में वन अधिकारियों की अवैध हिरासत में मौत के घाट उतार दिया गया था.”

पत्र में कहा गया हैं, “गरीब आदिवासियों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करने और या उन्हें लंबे समय तक कैद में रखने ने उनके और उनके आश्रितों (उनके ऊपर निर्भर परिवार के सदस्यों) के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है. अदालती मामलों को लड़ने के लिए परिवार को अपना पूरा संसाधन (जो किसी भी मामले में बहुत कम है) खर्च करना पड़ता है क्योंकि मुकदमेबाजी काफी महंगी होती है और मामले सालों तक खिंचते हैं.”

पत्र में ये भी कहा गया है, “दूसरी ओर अगर कमाऊ सदस्य को जेल हो जाती है तो परिवार पूरी तरह दरिद्रता के साथ-साथ सामाजिक अपमान में धकेल दिया जाता है. फिर भी उन पीड़ितों को मुआवज़ा देने की कोई योजना नहीं है जिन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया है और बरी होने से पहले जेल में अपने जीवन के कई साल खो दिए हैं.”

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