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ग्रेट निकोबार परियोजना से आदिवासियों के हितों पर कोई असर नहीं पड़ेगा: केंद्रीय पर्यावरण मंत्री

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने ग्रेट निकोबार मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के बारे में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सांसद जयराम रमेश द्वारा उठाई गई चिंताओं का अब जवाब दिया है.

केंद्रीय मंत्री ने एक आधिकारिक बयान में कहा है कि ग्रेट निकोबार के विकास से जुड़ी प्रस्तावित परियोजना पर इस तरह अमल किया जाएगा कि इसमें पर्यावरणीय प्रभाव बहुत कम होगा.

21 अगस्त को लिखे पत्र में यादव ने इस बात पर जोर दिया कि परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए रणनीतिक, राष्ट्रीय और रक्षा हितों को ध्यान में रखते हुए बेहतर उपाय शामिल किए गए हैं.

ग्रेट निकोबार द्वीप (GNI) परियोजना दुर्लभ और स्थानिक प्रजातियों, वर्षावनों और द्वीप पर रहने वाली जनजातीय आबादी पर इसके संभावित प्रभाव के कारण विवाद का विषय रही है.

इस परियोजना में एक ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, एयरपोर्ट, टाउनशिप और पावर प्लांट की योजनाएं शामिल हैं, जिसे वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट माना जाता है.

वन डायवर्जन के बारे में रमेश की चिंताओं को संबोधित करते हुए यादव ने कहा, “परियोजना के लिए वन भूमि के डायवर्जन के बावजूद, ग्रेट निकोबार में 82 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित वनों, पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों और बायोस्फीयर रिजर्व के अंतर्गत है… यह दो-तिहाई क्षेत्र को वन क्षेत्र के अंतर्गत बनाए रखने के निर्धारित मानदंडों से कहीं अधिक है.”

भूपेंद्र यादव ने छह पन्नों के पत्र में रमेश, जो 2009 से 2011 के बीच पर्यावरण मंत्री थे, उनकी विशिष्ट चिंताओं पर जवाब दिया.

वर्तमान मंत्री ने परियोजनाओं का बचाव किया और कहा कि स्वीकृतियां वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम 1980, प्रोफेसर शेखर सिंह की सिफारिशों और 7 मई, 2002 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप हैं.

प्रतिपूरक वनरोपण के बारे में, जिसके बारे में जयराम रमेश ने कहा था कि यह प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के नष्ट होने का विकल्प नहीं है और यह हजारों किलोमीटर दूर एक बहुत ही अलग पारिस्थितिकी में किया जा रहा है.

यादव ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि ग्रेट निकोबार द्वीप में वृक्षारोपण के लिए क्षेत्र उपलब्ध नहीं हैं.

उन्होंने आगे बताया कि ग्रेट निकोबार द्वीप पर वृक्षारोपण के लिए क्षेत्रों की अनुपलब्धता के कारण, गैर-अधिसूचित वन भूमि, शुष्क परिदृश्य और शहरी इलाकों में देशी प्रजातियों के पौधे लगाने का प्रयास किया जा रहा है, जो उनके मुताबिक अधिक पारिस्थितिक लाभ प्रदान करेगा.

उन्होंने कहा कि परियोजना के लिए हरियाणा सरकार द्वारा 24,353.72 हेक्टेयर क्षेत्र को पहले ही संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है.

वहीं कांग्रेस नेता ने शोम्पेन जनजाति, जो एक मूल निवासी समुदाय है जिसे विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया गया है… उस पर परियोजना के प्रभाव के बारे में चिंताओं को भी संबोधित किया था.

इस पर यादव ने जोर देकर कहा कि ग्रेट निकोबार परियोजना के समग्र विकास के मद्देनजर आदिम आदिवासी समूहों की सुरक्षा, प्रक्षेपण और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए एंथ्रोपोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया सहित आदिवासी विशेषज्ञों के साथ उचित परामर्श भी किया गया है.

और कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति (HPC) ने नोट किया कि परियोजना “आदिवासी समुदायों विशेष रूप से शोम्पेन के हितों” को प्रभावित नहीं करेगी और आदिवासियों के विस्थापन की अनुमति नहीं दी जाएगी.

परियोजना पर आदिवासी परिषद की आपत्तियों के एक महत्वपूर्ण मामले पर, मंत्री यादव ने सरकार के रुख को दोहराया कि संबंधित कानून में निर्धारित “वैधानिक अवधि के दौरान कोई आपत्ति नहीं उठाई गई थी.”

कांग्रेस नेता को दिए अपने जवाब में मंत्री ने कहा, “प्रशासन उनकी ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिए शोम्पेन नीति का पालन कर रहा है… अंडमान और निकोबार प्रशासन ने एक विशेष चिकित्सा इकाई की स्थापना सहित आदिवासी कल्याण योजनाओं के लिए 201.98 करोड़ रुपये का बजट तैयार किया है.”

कांग्रेस नेता रमेश ने अपने पत्र में सहमति का मामला उठाया था. 14 अप्रैल, 2023 को लिटिल और ग्रेट निकोबार की जनजातीय परिषद ने नवंबर 2022 में उस वर्ष अगस्त में भूमि के डायवर्जन के लिए दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) को वापस ले लिया था – जिसमें से लगभग आधी जनजातीय आरक्षित भूमि है.

ऐसे में भूकंप की संवेदनशीलता के मुद्दे पर यादव ने क्षेत्र की भूकंपीय गतिविधि को स्वीकार किया लेकिन किसी बड़ी आपदा के जोखिम को कम करके आंका.

उन्होंने कहा, “भूकंपविज्ञानी 2004 में आए बड़े भूकंपों के लिए 420 से 750 साल की वापसी अवधि का सुझाव देते हैं.”

उन्होंने कहा कि आने वाले दशकों में अलग-अलग तीव्रता के भूकंप संभव हैं. लेकिन 2004 में आए 9.2 की तीव्रता वाले बड़े भूकंप की संभावना कम है.

यादव ने जोर देकर कहा कि मानवजनित और प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखते हुए एक आपदा प्रबंधन योजना तैयार की गई है. उन्होंने आश्वासन दिया कि परियोजना के निर्माण में भूकंपरोधी डिजाइन के लिए भारतीय मानक संहिता और राष्ट्रीय भवन संहिता दिशानिर्देशों का पालन किया जाएगा.

जयराम रमेश की चिंताएं…

8 अगस्त को लिखे पत्र में जयराम रमेश ने ग्रेट निकोबार द्वीप में केंद्र सरकार का प्रस्तावित 72,000 करोड़ रुपये का ‘मेगा इंफ्रा प्रोजेक्ट’ ग्रेट निकोबार द्वीप के आदिवासी समुदायों और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक गंभीर खतरा बताया था.

उन्होंने दावा किया कि इस परियोजना के विनाशकारी पारिस्थितिक और मानवीय परिणाम हो सकते हैं. इसे उचित प्रक्रिया का उल्लंघन करके और जनजातीय समुदायों की रक्षा करने वाले कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करके आगे बढ़ाया गया है.

उन्होंने कहा कि इस परियोजना स्थल के कुछ हिस्से कथित तौर पर सीआरजेड 1ए (कछुए के घोंसले वाले स्थान, मैंग्रोव, मूंगा चट्टान वाले क्षेत्र) के अंतर्गत आते हैं. इस बंदरगाह में निर्माण करने पर रोक है.

उन्होंने दावा किया कि इस परियोजना से शोम्पेन जनजाति पर बुरा असर पड़ेगा.

क्या है ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट?

मार्च 2021 में नीति आयोग ने 72000 करोड़ रुपये का एक प्रोजेक्ट पेश किया, जिसमें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के ‘विकास’ का खाका पेश किया गया.  इसमें ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, एक इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पावर प्लांट और टाउनशिप बनाने की प्लानिंग है.

इसे लागू करने का कामकाज सरकारी कंपनी अंडमान एंड निकोबार आइलैंड इंटीग्रेटेड डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन (ANIIDCO) को दिया गया.

आसान भाषा में समझें तो इस प्रोजेक्ट के जरिए एक शहर विकसित करने की योजना है, जहां दुनियाभर के जहाज पहुंच सकें. सामान आयात-निर्यात किया जा सके.

केंद्र सरकार का तर्क है कि जिस प्रस्तावित बंदरगाह की बात प्रोजेक्ट में की गई है, उससे क्षेत्रीय और वैश्विक मैरिटाइम इकोनॉमी में ग्रेट निकोबार की हिस्सेदारी बढ़ेगी. एयरपोर्ट के बनने से मैरिटाइम सर्विसेज को ग्रोथ मिलेगी और ग्रेट निकोबार आइलैंड से देशी और विदेशी पर्यटकों की आवाजाही बढ़ेगी, जिससे टूरिज्म को बूस्ट मिलेगा.

लेकिन इस प्रोजेक्ट का जमकर विरोध हो रहा है. प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि इतनी उथल-पुथल के कारण यहां रहने वाले आदिवासी समुदायों के रहने का तरीका बदलेगा. उनका जनजीवन प्रभावित होगा. उनके अधिकार छिन जाएंगे. 130 वर्ग किलोमीटर का जंगल खत्म हो सकता है.

उनका कहना है कि प्रोजेक्ट का सबसे ज्यादा असर यहां के संवेदनशील आदिवासी समूह पर भी पड़ेगा, जो बाहरी की दुनिया से कटे रहते हैं. वहीं शोमपेन जनजाति और उनके जीवन पर भी बुरा असर पड़ेगा.

(Image credit : PTI)

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