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मैती को एसटी लिस्ट में शामिल करने के मामले में कोर्ट के हस्तक्षेप से नाराज़गी

मणिपुर (Manipur) हाई कोर्ट ने पिछले हफ्ते राज्य सरकार को अनुसूचित जनजातियों की सूची में मैती समुदाय (Meitei community) को शामिल करने की मांग पर विचार करने का आदेश दिया है. जिसके बाद से राज्य के कई जनजातीय समुदायों में असंतोष दिखा है.

आदिवासी समूहों ने अदालत के आदेश पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और इसे “न्यायिक अतिक्रमण” का मामला बताया है.

19 अप्रैल को हाई कोर्ट ने अपने आदेश में सरकार से अनुसूचित जनजाति सूची में मैती या मेईतेई समुदाय को शामिल करने के लिए याचिकाकर्ताओं के मामले पर जल्द से जल्द यानि चार हफ्ते के भीतर विचार करने के लिए कहा है.

अदालत ने मैती जनजाति संघ द्वारा दायर एक याचिका पर कार्रवाई करते हुए कहा कि संविधान की अनुसूचित जनजाति सूची में इस समुदाय को शामिल करने का मुद्दा लगभग 10 वर्षों से लंबित है.

आदेश में कहा गया है, “पिछले 10 वर्षों से सिफारिश प्रस्तुत नहीं करने के लिए प्रतिवादी राज्य की ओर से कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं मिल रहा है.”

दरअसल, मई 2013 में आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय ने इस मामले पर मणिपुर सरकार के विचार मांगे थे.

करीब एक दशक से प्रभावशाली मैती समुदाय अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहा है, यह तर्क देते हुए कि उसे बाहरी लोगों और “घुसपैठ” के खिलाफ कानूनी सुरक्षा की जरूरत है. वहीं याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मणिपुर के भारत संघ में विलय से पहले मैती को एक जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी.

ज़मीन की राजनीति?

मणिपुर के दो प्रमुख आदिवासी समूह – नागा और कुकी पहाड़ी जिलों में रहते हैं. जो राज्य के क्षेत्रफल का लगभग 90 प्रतिशत है. लेकिन ये 10 जिले 60 सदस्यीय विधान सभा में सिर्फ 20 विधायक भेजते हैं क्योंकि वे घाटी की तुलना में कम आबादी वाले हैं.

वहीं मेइती जो राज्य की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा हैं बड़े पैमाने पर इंफाल घाटी में केंद्रित हैं.

मणिपुर के आदिवासी पहाड़ी जिलों को संविधान के अनुच्छेद 371C के तहत विशेष सुरक्षा प्राप्त है. जो कहता है कि इन जिलों को प्रभावित करने वाले सभी कानूनों को मणिपुर विधानसभा की पहाड़ी क्षेत्र समिति द्वारा जांचा जाना चाहिए.

आदेश पर प्रतिक्रिया देते हुए समिति, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के नौ विधायक शामिल हैं, ने कहा कि समिति मणिपुर के आदिवासी समूहों के कड़े विरोध के बावजूद पारित किए गए अदालती निर्देश से व्यथित और परेशान है.

एक प्रस्ताव में पहाड़ी क्षेत्र समिति के अध्यक्ष और बीजेपी विधायक दिगांगलुंग गंगमेई ने कहा कि पैनल, जिसे पहाड़ी क्षेत्रों के लिए कानून और प्रशासन की निगरानी करने का अधिकार है उसे “न तो मामले में पक्ष बनाया गया और न ही परामर्श किया गया.

उन्होंने कहा, “संविधान का अनुच्छेद 371C, जो आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा करता है, घाटी के लोगों या बाहरी लोगों को पहाड़ी जिलों में जमीन खरीदने और प्राप्त करने से रोकता है. लेकिन एसटी दर्जे की मांग के पीछे की राजनीति [इच्छा से प्रेरित] आदिवासियों की भूमि पर घुसपैठ करने की है.”

संवेदनशील मुद्दा है

मणिपुर सहित देश के जनजातीय बहुल इलाक़ों में किसी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल करने का फ़ैसला बेहद संवेदनशील मामला है.

क्योंकि यह सिर्फ़ पहचान का मामला नहीं बल्कि यह संसाधनों तक पहुँच और बँटवारे का मामला भी होता है. इसके साथ साथ आरक्षण और संविधान के तहत मिली विशेष सुरक्षा भी इससे जुड़ी है.

हाल ही में संसद में इस किसी समुदाय को आदिवासी मान कर अनुसूचित जनजाति की सूची में डालने पर एक ठोस नीति बनाने पर काफ़ी बहस हुई है.

सरकार को बार-बार आगाह भी किया गया था कि किसी राज्य में चुनाव से पहले किसी समुदाय को एसटी दर्जा देने के फ़ैसले बचा जाना चाहिए.

लेकिन सरकार ने हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनावी फ़ायदे के लिए कुछ समुदायों को एसटी लिस्ट में शामिल करने का फ़ैसला किया था.

उसके बाद मैती ही नहीं बल्कि झारखंड में कुड़मी और असम के कई समुदाय बहुत नाराज़ हैं.

किसी सामाजिक समूह को आदिवासी मान कर एसटी लिस्ट में शामिल करने का फ़ैसला व्यापक शोध और विमर्श के बाद ही किया जाना ज़रूरी है. अन्यथा इस तरह के फ़ैसले ना सिर्फ़ राजनीतिक नुक़सान कर सकते हैं, बल्कि अशांति का कारण भी बन सकते हैं.

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