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जानिए, कैसे गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तराखंड के आदिवासी होली को एक अलग रंग देते हैं

बरसाने की मशहूर लठ्ठमार होली से तो आप लोग अवगत हैं. लेकिन क्या आप उतराखंड़ की थारू जनजाति की ज़िंदा और मरी होली और राजस्थान की पत्थरमार होली के बारे में जानते हैं? तो आइए आज जानते हैं कि आदिवासी समुदाय में होली के त्योहार को कैसे मनाते हैं.

विभिन्न आदिवासी समुदाय अपने-अपने तौर-तरीके से होली मनाते हैं होली. आज हम गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तराखंड की आदिवासियों की होली के बारे में बात करेंगे

गुजरात

गुजरात की कुछ जनजातियां होली को दैवीय शक्ति से जोड़कर देखते हैं. उनकी मान्यताओं के मुताबिक पूर्णिमा की रात को देवी का आह्वान करते हुए जलते अंगारों पर चलने से देवी उनसे प्रसन्न होती हैं और उनकी इच्छाएं पूरी करती हैं. इस अवसर पर वे देवता से अच्छे स्वास्थ्य, पुत्र या मवेशियों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं.

राज्य के दक्षिण-पूर्व हिस्से की राठवा जनजाति का मानना है कि अगर कोई व्यक्ति एक साल के लिए भी कावंत मेले में हिस्सा नहीं लेता तो उसे कभी दुल्हन नहीं मिलती.

कावंत में होली उत्सव पांच दिनों तक चलता है. हालांकि आदिवासी इस अवधि के दौरान उपवास करते हैं और आराम से दूर रहते हैं. इस मेले में रंगों, कला, पारंपरिक पोशाक, संगीत और नृत्य की झलक देखने को मिलती है.

राजस्थान

देश के सभी क्षेत्रों में रंगों से होली मनाई जाती है लेकिन राजस्थान के आदिवासी गांवों में होली पत्थर से खेली जाती है.
लोग पत्थर इकट्ठा करते हैं और होलिका दहन के बाद रात से ही खेलना शुरु कर देते हैं और ये खेल धुलंडी तक चलती है. माहौल में वीर रस भरने के लिए ढोल और चंग बजाए जाते हैं. इस होली को लोग राड़ (राड़ यानी दुश्मन) की होली कहते हैं.

ढोल और चंग की आवाज जैसे-जैसे तेज़ होती है, वैसे-वैसे लोग दूसरी टीम को तेज़ी से पत्थर मारना शुरू कर देते हैं. बचने के लिए हल्की-फुल्की ढाल और सिर पर पगड़ी का इस्तेमाल होता है.

आदिवासी क्षेत्र के बड़े बुजुर्गो की मानें तो सदियों पहले यहां के राजा ने किसी पाटीदार जाति के व्यक्ति को होली के दिन मरवा दिया था.

इसके बाद मृतक की पत्नी उसकी लाश को गोद में लेकर सती हो गई और मरते वक्त श्राप दे गई कि होली के दिन अगर यहां मानव रक्त नहीं गिरेगा तो प्राकृतिक आपदा आएगी. इसी मान्यता के चलते ही यहां हर वर्ष होली पर पत्थर मार होली खेली जाती है.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में पावरा, काठी और कोरकू जैसी कई जनजातियाँ होली के त्योहार पर विशेष उत्सव मानती हैं.
यावल गांव में एक महीने तक चलने वाले उत्सव में पावरा लड़के गहने पहनते हैं और अपनी कमर पर एक छोटा ड्रम बांधकर शादी के लिए लड़की ढूंढने की उम्मीद में गांव में परेड करते हैं. लड़की को अपने पसंद का लड़का चुनने की आज़ादी होती है. गांववाले इक्ट्ठा होकर इस परंपरा को देखते हैं.

सतपुड़ा पहाड़ियों के मेलघाट गांव में होली का उत्सव पांच दिन का होता है. शुरुआती दिनों में प्रकृति की पूजा और खुशी के लिए प्रार्थना की जाती है और इसका समापन मौज-मस्ती, दावत और जरीखंबा खेलों के साथ होता है.

यहां काठी गांव की 770 साल पुरानी रजवाड़ी होली सबसे अधिक लोकप्रिय है.

इस त्योहार की तैयारियां वास्तविक त्योहार के दिन से 15 दिन पहले शुरू हो जाती हैं. तैयारी की अवधि के दौरान, जिन लोगों ने भक्त के रूप में प्रदर्शन करने की शपथ ली है, वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और होली की आग के लिए 70 से 80 फीट बांस इकट्ठा करने के लिए जंगल में 350 से 400 किमी भीतर तक चले जाते हैं.

उपयुक्त बांस मिल जाने पर वे उसे काटते नहीं हैं, पहले उसकी पूजा करते हैं और फिर उसे जमीन से खोदकर निकालते हैं.

पंद्रहवें दिन के अंत में काठी के लोग गांव के मध्य में 40 से 50 फीट बांस खड़ा कर देते हैं. जमीन में कम से कम 5 फीट गहरे गड्ढे में इसे लगाते हैं. इसके लिए वे किसी भी उपकरण का उपयोग नहीं करते.

जनजातीय राजा उमेदसिंह ने 1246 में इसकी शुरुआत की थी. तब से राजा के वंशजों ने इस परंपरा को उसी पद्धति से जारी रखा.

उतराखंड

यहां के थारु आदिवासी जिंदा होली और मरी होली खेलते हैं. होली का उत्सव होलिका दहन से 15 दिन पहले ही शुरू हो जाता है. होलिका दहन से पहले ज़िंदा होली खेली जाती है और होलिका दहन के बाद मरी होली खेली जाती है.

होलिका दहन तक मनाई जाने वाली ज़िंदा होली में स्त्री-पुरुष घर-घर जाकर ढोल-नगाड़े बजाते हुए होली के गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं. इसे खिचड़ी होली भी कहते हैं.

परंपरा के अनुसार जिन गांवों में आपदा या बीमारियों से मौत हो जाती थी उस गांव के लोग होली का त्योहार होलिका दहन के बाद मनाना शुरु करते थे. पूर्वजों के दौर से चली आ रही इस परंपरा को आज भी थारू समाज के लोग मानते आ रहे हैं.

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