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IIIT हैदराबाद ने आदिवासी भाषाओं को दी टेक्नोलॉजी की आवाज़  

IIIT (इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) हैदराबाद एक बड़ी और खास पहल कर रहा है.

इस संस्थान ने अब भारत की आदिवासी भाषाओं को टेक्नोलॉजी की मदद से बोलने लायक बना दिया है. मतलब, अब कंप्यूटर और मोबाइल फोन की मदद से इन भाषाओं में कोई भी चीज़ पढ़ी या सुनी जा सकती है.

इस योजना का नाम है “अदि वाणी” जिसे भारत सरकार चला रही है.

इस योजना के तहत IIIT हैदराबाद ने टेक्स्ट-टू-स्पीच (Text to Speech – TTS) टूल बनाए हैं.

ये टूल अभी संथाली, मुंडारी और भील भाषाओं में काम कर रहे हैं.

इसका मतलब है कि अगर आप कोई शब्द या वाक्य इन भाषाओं में टाइप करेंगे, तो यह टूल उसे आवाज़ में बदल देगा.

एक और आदिवासी भाषा गोंडी पर भी काम चल रहा है और जल्द ही उसका टूल भी तैयार हो जाएगा.

इन टूल्स को बनाने के लिए आदिवासी समुदाय के लोगों ने खुद मदद की.

वे लोग IIIT हैदराबाद आए और उन्होंने अपनी भाषाओं में बोलकर सैंपल रिकॉर्ड कराए. इन रिकॉर्डिंग्स से कंप्यूटर ने यह सीखा कि उन भाषाओं को कैसे बोला जाता है.

इससे कंप्यूटर और मोबाइल अब इन भाषाओं में भी लोगों से “बोल” सकेंगे.

IIIT हैदराबाद सिर्फ इतना ही नहीं कर रहा है. वह अब तेलंगाना राज्य की आदिवासी बोलियों पर भी काम करने जा रहा है.

इन भाषाओं के नाम हैं: कोया, कोलामी, नाइकड़ी, चेंचू, येरुकला (या जायकाड़ी), लम्बाड़ी, नक्काला और कॉन्डा कम्मारा.

इन सभी पर काम जल्दी शुरू होगा ताकि इन बोलियों को भी टेक्नोलॉजी से जोड़ा जा सके.

इस योजना की एक और खास बात है कि अब संथाली भाषा का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद भी हो सकता है, और उल्टा भी.

यानी अगर कोई सरकारी जानकारी हिंदी या अंग्रेजी में है, तो उसे आदिवासी भाषा में बदला जा सकता है, जिससे वह आदिवासी लोगों को आसानी से समझ आ सके.

इस काम का नेतृत्व प्रोफेसर राधिका ममिडी कर रही हैं.

उन्होंने बताया कि उनका मकसद है कि आदिवासी लोग अपनी भाषा में सरकारी योजनाएं, स्कूल की किताबें, और स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी सुन सकें.

इससे उन्हें किसी और भाषा पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.

फिलहाल ये टेक्नोलॉजी “बीटा वर्जन” में है, यानी इसका टेस्टिंग चल रहा है. लेकिन जल्द ही ये सभी के लिए आसानी से मोबाइल और कंप्यूटर पर उपलब्ध होगा.

भारत में सैकड़ों आदिवासी भाषाएं हैं, जिनमें से कई धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं. लेकिन अब इस तरह की तकनीक से उन भाषाओं को बचाया जा सकता है.

यह पहल न सिर्फ भाषा को जिंदा रखने में मदद करेगी, बल्कि आदिवासी लोगों को टेक्नोलॉजी से जोड़ने का भी रास्ता खोलेगी.

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