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हिमाचल प्रदेश: एफ़आरए कार्यान्वयन की रफ़्तार बेहद धीमी

हिमाचल प्रदेश का लगभग दो-तिहाई हिस्सा भले ही जंगल हो, लोकिन फिर भी राज्य में वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए), 2006 का कार्यान्वयन धीमी गति से चल रहा है.

एफ़आरए के कार्यान्वयन की स्थिति पर केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश में वन अधिकारों के 2,903 दावे पेश हुए, जिनमें 2,642 व्यक्तिगत और 261 सामुदायिक दावे शामिल हैं. इन कुल दावों में से सिर्फ़ 164 को ही मंज़ूरी के बाद ज़मीन के पट्टे दिए गए हैं. इनमें 129 व्यक्तिगत और 35 सामुदायिक अधिकार के पट्टे हैं.

वन अधिकारों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना ​​है कि अधिनियम की धारा 3(1) के तहत सामुदायिक वन अधिकार (Community Forest Rights) यानि सीएफ़आर और सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (Community Forest Resource rights) यानि सीएफ़आरआर अधिकारों को मान्यता न देने की मुख्य वजह राज्य के आदिवासी, पंचायती राज, वन और राजस्व विभागों के बीच समन्वय की कमी है.

वकील और कार्यकर्ता अमित सिंह चंदेल ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “ज़मीन पर लोग शायद ही अपने अधिकारों, ख़ासकर सामुदायिक अधिकारों के बारे में जागरूक हैं. व्यक्तिगत दावों को लोगों द्वारा दायर किया जाना है, और ऐसा न होने पर कोई दावा नहीं किया जा सकता है. जबकि, सीएफ़आर और सीएफ़आरआर के मामले में दावे ‘ग्राम सभा’ ​​की ओर से वन अधिकार समिति (FRC) द्वारा तैयार और प्रस्तुत किए जाने चाहिएं.”

बेदख़ली का डर

लोगों को एक डर यह भी है कि दावा करने पर वो बेदखल कर दिए जाएंगे. हालांकि, वे यह नहीं जानते कि सरकारी एजेंसियों पर यह ज़िम्मेदारी है कि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरुक करें. लेकिन, चूंकि आमतौर पर ऐसा नहीं होता, तो एफ़आरए का कार्यान्वयन धीमा हो जाता है.

चंदेल का कहना है, “दिलचस्प बात यह है कि हिमाचल सरकार ने 2008 में सिर्फ़ आदिवासी इलाक़ों में अधिनियम लागू किया था, और 2012-13 में ही इसे पूरे राज्य में लागू किया गया है. राज्य सरकार के रवैये का अंदाजा तत्कालीन मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री को भेजे गए पत्रों से लगाया जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि जंगल में रहने वाले लोगों के अधिकार बहुत पहले ही उन्हें दे दिए गए हैं. लेकिन सच यह है कि यह अधिकार सिर्फ़ रियायतें हैं, और किसी भी समय वापस लिए जा सकते हैं. जबकि किसी ‘ग्राम सभा’ ​​के नाम पर पट्टे जारी होने से व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं.”

यह याद करने लायक है कि केंद्रीय जनजातीय मामलों और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालयों ने इस साल जुलाई में राज्यों को एफ़आरए के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए एक घोषणा जारी की थी, जिसमें अधिनियम के जल्द कार्यान्वयन की बात थी.

उस चिट्ठी में कहा गया है कि जंगल में रहने वाले आदिवासी (एफडीएसटी) और दूसरे लोग (ओटीएफडी) पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं. उनकी आजीविका, पहचान, रीति-रिवाज़ और परंपराएं सब जंगल पर ही निर्भर हैं. लेकिन, उनकी पैतृक भूमि और उनके घरों पर उनके अधिकारों को पर्याप्त मान्यता नहीं दी गई है.

चिट्ठी में लिखा है, “इस ऐतिहासिक अन्याय में सुधार की ज़रूरत है, और इसीलिए वन अधिकार अधिनियम, 2006 को बनाया था. यह एफ़डीएसटी और ओटीएफ़डी, जो पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं, के वन अधिकारों और वन भूमि पर क़ब्जे को मान्यता देने के लिए बनाया गया अधिनियम है.”

हाल ही में, मंडी ज़िले के धामचायन पंचायत के निवासियों ने हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने कोर्ट को बताया कि उनके वन अधिकार, विशेष रूप से सामुदायिक अधिकार और सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का एफआरए, 2006 की धारा 3(1) के तहत उल्लंघन हुआ है.

एफ़आरए अधिनियम की धारा 3(1)(i) किसी भी सामुदायिक वन संसाधन के संरक्षण या प्रबंधन का प्रावधान करती है. उधर, राज्य सरकार का कहना है कि धामचायन पंचायत के अधिकारों का निपटारा करते समय अधिनियम के प्रावधानों के तहत हर प्रक्रिया का पालन किया गया था.

“प्रक्रिया के दौरान घोषणा के बाद ग्राम सभा से कोई दावा नहीं मिला, और इसे ग्राम सभा, उप-मंडल स्तरीय समिति, ज़िला-स्तरीय समिति द्वारा स्वीकार किया गया था. यह ज़िला स्तरीय समिति की बैठक की कार्यवाही में दर्ज किया गया है,” सरकारी नोट कहता है.

हिमाचल प्रदेश आदिवासी विकास के प्रमुख सचिव ओंकार चंद शर्मा कहते हैं, “हमने एफ़आरए कार्यान्वयन पर काम कर रहे कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर दिया है, और जहां भी दावे मिल रहे हैं उनका फैसला जल्द किया जा रहा है. हाल ही में राज्य में पंचायती राज के चुनाव हुए थे और इसलिए उप-मंडल स्तर और ज़िला-स्तरीय समितियों का पुनर्गठन किया जा रहा है. 70%-80% समितियों का पुनर्गठन किया गया है और हम समितियों को फिर से अधिसूचित करने की प्रक्रिया में हैं, क्योंकि चुनाव के बाद सदस्य बदल जाते हैं. इसके अलावा, हिमाचल प्रदेश में, स्थानीय और वन अधिकारों को राजस्व रिकॉर्ड और वन बंदोबस्त नियमों में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, और इसलिए राज्य में आवेदन कम हैं.”

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