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बस्तर दशहरा: सालों पुरानी रस्मों और 75 दिनों तक चलने वाला पर्व

छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी गांव में दशहरा पर्व पूरे 75 दिनों तक चलता है. इसके साथ ही इस पर्व पर बड़ी डोली में यात्रा निकालते है.

यह यात्रा यहां का मुख्य आर्कषण है. इसे देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते है.

दशहरा पर्व की यात्रा और रथ

बस्तर ही एक ऐसी जगह है. जहां पर इस पर्व को पूरे 75 दिनों तक बड़े धूमधाम से मनाते है. जिसमें कई रस्में होती हैं और 13 दिनों तक अनेक देवी देवताओं की पूजा की जाती है. इन में दंतेश्वरी माता भी शामिल है.

देश के अन्य स्थानों से अलग बस्तर के दशहरे पर राम-रावण युद्ध नहीं बल्कि बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के प्रति अपार श्रद्धा झलकती है.

यह रथ करीब 50 फीट उंचा होता है. इस रथ का वज़न कई टन होता है और इसे दो मंजिला की बनाया जाता है. जिसे खींचने के लिए सैकड़ों आदिवासी अपनी इच्छा से गांवों से यहां पहुंचते हैं. रथ पर मां दंतेश्वरी की डोली और छत्र को विराजमान कराया जाता है.

इस पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी की जाती है. इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की डाल को स्थापित कर डेरी गड़ाई रस्म पूरी करते हैं.

फिर विशाल रथ के निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और झारउमरगांव व बेड़ा उमरगांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण का काम सौंपा जाता है. जिससे वह दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार कर देते है.

अब इस रथ को खींचने की बारी आती है. जिससे बस्तर के 200 से ज्यादा आदिवासी हाथों से ही पारंपरिक औजारों द्वारा बनाए गए विशालकाय रथ की शहर में परिक्रमा कराते हैं.

इसके साथ ही पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है. अश्विन अष्टमी के दिन निशा जात्रा रस्म में आधी रात को कम से कम 12 बकरों की बलि दी जाती है. इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार के सदस्यों भी शामिल होते है.

रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को यादव जाति और राज पुरोहित मिलकर तैयार करते हैं. जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से यात्रा स्थल तक कांवड़ में पहुंचाया जाता है और इसका निशा यात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व होता है.

मां दंतेश्वरी की पूजा

छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर के चंदवाड़ा में स्थित मां दंतेश्वरी मंदिर ना केवल सम्मानित बल्कि समर्पित भी है.

इसके साथ ही यह भी माना जाता है की यह मंदिर 52 शक्ति पीठों में से एक है.

यात्रा का इतिहास

बस्तर के दशहरा में होने वाले अद्भुत रस्म है जिससे देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग बस्तर आते है. इन रस्मों कि शुरुआत 1410 ईसवीं में बस्तर के तात्कालिन महाराजा पुरषोत्तम देव के द्वारा की गई थी.

उन्होंने पुरी जाकर रथपति की उपाधि प्राप्त की थी. जिसके बाद से अब तक यह परम्परा अनवरत इसी तरह से चली आ रही है.

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