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झारखंड: घर, कागज और कपड़ों में जिंदा है सोहराई कला

सदियों से चली आ रही कलाएं समय के साथ-साथ विलुप्त होती जा रही है या यह कहे की समय के साथ-साथ धूमिल होती जा रही है. आदिवासी अपनी कला अपने घरों, कपड़ों और कागजों पर बनाकर जिंदा रखते है. इसके साथ ही वह चाहते है कि यह कला उनकी आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचे.

ऐसी ही एक कला है जो कि झारखंड में बहुत प्रसिद्ध है. लेकिन समय के साथ यह कला भी विलुप्त होती जा रही है. इस कला का नाम है सोहराई.

लेकिन झारखंड के जमशेदपुर में 40 आदिवासी महिलाएं अपने घर का काम खत्म होने के बाद पंरपरा के हिसाब से सोहराई चित्र कला को कपड़े और कागज पर बनाती हैं.

इस कला को सरकार की पहल से अब जाके पहचान मिलनी शुरु हुई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कला और संस्कृती को बढ़ावा देने के कारण आज लोग इस कला को भी जानने लगे है.

इसके साथ ही एक संस्था है, जिसने इस कला को अभी तक जिंदा रखा हुआ है. इस संस्था का नाम अबीर संस्था है. यह संस्था लोगों को सिखाती है कि कैसे कला उनके लिए रोज़गार का साधन बन सकती है और उन्हें पैसे कमाने में मदद मिल सकती हैं.

क्या है सोहराई चित्र कला

सोहराई एक पर्व है, जो दीवाली के तुरंत बाद और फसल कटने के साथ मनाया जाता है. इस अवसर पर आदिवासी अपने घरों की दीवारों पर चित्र बनाते है और इसी दिन गाँव के लोग पशुओं को सुबह जंगल की ओर ले जाते है और अपराह्न में उनका अपने द्वार पर स्वागत करते हैं.

इस क्रम में वे अपने घर के द्वार पर के अरिपन का चित्रण करते हैं. अरिपन भूमि पर किया जाता है.

इस चित्र को बनाने के लिए पहले जमीन को साफ करके उस पर गोबर/पिटूटी का लेप लगाया जाता है. फिर चावल के आटे से बने घोल से अरिपन का चित्र बनाया जाता है.

इस चित्र में बने ज्यामितीय आकार पर पशु चलकर घर में प्रवेश करते हैं और यह चित्रण भी घर की महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है.

इसके साथ ही इन चित्रों में दीवारों की पृष्ठभूमि मिटटी के मूल रंग होते है. उस पर कत्थई लाल, गोद (कैओलीन) और काले (मैंगनीज) रंगों से आकृतियां बनाई जाती है.

इसके अलावा इन लोक कलाओं की शिक्षा हर बेटी अपनी माँ या घर की अन्य वरिष्ठ महिलाओं से सिखती हैं.

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