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पड़ोसी राज्यों में बसे बस्तर के विस्थापित आदिवासी नहीं लौटना चाहते छत्तीसगढ़

जमीनी सर्वेक्षण करने के लिए तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के अपने दौरे पर छत्तीसगढ़ सरकार के अधिकारियों ने यह पाया है कि आदिवासी परिवार, जो लगभग 15 साल पहले माओवादी हिंसा की वजह बस्तर से पड़ोसी राज्यों में भाग गए थे, वो अब छत्तीसगढ़ लौटना नहीं चाहते हैं. और ये तब है जब वो इन राज्यों में अपने भविष्य को लेकर “असुरक्षित” महसूस करते हैं.

दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा के अधिकारियों ने राज्य सरकार के एक निर्देश के बाद बस्तर के आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों (Internally Displaced Persons) से मुलाकात की.

यह प्रक्रिया इसलिए शुरू की गई है क्योंकि आदिवासियों के मुताबिक उन्हें आसपास के राज्यों में अधिकारियों द्वारा उन इलाकों को खाली करने के लिए मजबूर किया गया था, जहां वे रह रहे हैं.

यह आदिवासी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के घने जंगलों में बसे हैं

“तेलंगाना सरकार अपना वृक्षारोपण अभियान चला रही है. बस्तर के आदिवासी जो शुरू में घने जंगलों के एक प्रतिबंधित इलाके में बस गए थे, उन्होंने अपनी बस्ती का विस्तार करने के लिए जंगलों को और काट दिया और खेती में भी वृद्धि की. विस्थापित आदिवासियों द्वारा जंगलों की कटाई से तेलंगाना सरकार खुश नहीं है और उसने चिंता जताई है. आदिवासियों को उनके बसे हुए (कब्जे वाले) इलाकों तक सीमित रहने और जंगलों को और न काटने के लिए नोटिस दिया गया है,” बस्तर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया.

अधिकारियों ने यह भी कहा कि बस्तर के विस्थापित आदिवासियों का सिर्फ एक छोटा प्रतिशत छत्तीसगढ़ लौटने को तैयार है, वो भी तब जब उन्हें रहने के लिए एक सुरक्षित जगह का आश्वासन दिया जाए.

ज्यादातर विस्थापित आदिवासियों ने वोटर आईडी, आधार और राशन कार्ड हासिल कर लिया है, इसलिए वो छत्तीसगढ़ लौटना नहीं चाहते हैं. छत्तीसगढ़ या मेघालय में आदिवासी के रूप में मान्यता प्राप्त समुदायों को तेलंगाना या आंध्र प्रदेश में यह दर्जा नहीं मिलता है.

अधिकारियों का कहना है कि एक अनुमान के मुताबिक, विस्थापित बस्तर आदिवासी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के 200 से अधिक गांवों में बस गए हैं.

इन आदिवासियों के पुनर्वास की मांग उन जगहों पर की जाने की मांग है जो आधिकारिक तौर पर नियमित हैं. चूंकि यह आदिवासी 2005 में बस्तर में शुरू हुए सलवा जुडूम (माओवादी विरोधी अभियान) के दौरान राज्य छोड़कर चले गए थे, वो अभी भी अपनी खोई हुई आदिवासी पहचान के साथ जी रहे हैं.

इनमें से ज्यादातर के पास अपना डोमिसाइल साबित करने के लिए कोई वैध दस्तावेज नहीं है.

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