Mainbhibharat

बस्तर के आदिवासियों के आंगादेव की जात्रा

छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी अनोखी परंपरा और संस्कृति के लिए पूरे विश्व में पहचाना जाता है. यहां के आदिवासी समुदाय का रहन-सहन, रीति-रिवाज, पूजा-पाठ में काफ़ी विविधता मिलती है.

बस्तर का दशहरा देखने दुनिया भर के लोग यहां आते हैं. यही वह समय होता है जब बस्तर के आदिवासी इलाकों में पर्वों और जात्राओं की शुरुआत होती है.

इसलिए बस्तर को अनोखा बस्तर कहा जाता है. बस्तर के आदिवासी की धार्मिक या सामाजिक परंपरा बिना स्थानीय देवी देवता की अराधना के शुरु या संपन्न नहीं होती है. इन देवी-देवताओं में आंगा देव भी शामिल हैं. बस्तर के आदिवासियों का बड़ा हिस्सा अंगा देव को मानता है. दशहरे के पर्व के आस-पास आंगा देव की जात्रा का आयोजन किया जाता है.

आंगा देव कौन हैं

बस्तर जिले के हर गांव में सदियों पहले स्थापित किए गए आंगा देव आज भी मौजूद हैं. बस्तर में आम आदिवासी से अगर आंगा देव के बारे में पूछा जाए तो कोई भी सही सही जानकारी नहीं दे पाता है. ज़्यादातर लोग कहते हैं कि आंगा देव के प्रतीक के तौर पर लकड़ी से जो डोली जैसी चीज़ बनाई जाती है वह कोई मूर्ति या देवता नहीं हैं.

बल्कि इस डोली पर देव आते हैं. आंगा देव को विधि विधान से बनाया जाता है. बस्तर के स्थानीय आदिवासी समुदाय पेड़ की लकड़ी से एक डोली बनाते हैं. इस डोली को मोर पंख, फूल और अन्य चीजों से सजाते हैं.

आमतौर पर आंगा देव की डोली पहले बच्चों से ही उठवाई जाती है. आंगा देव का निर्माण कोई परिवार अपने स्तर पर करवा सकता है. कई बार पूरा गांव मिल कर भी एक आंगा देव का निर्माण करता है.

आदिवासियों का यह पुरानी परंपरा है

आंगा देव आदिवासियों के ईष्ट देव है. बस्तर के आदिवासी संस्कृति के जानकार कहते हैं कि कम से कम 400 साल से बस्तर के इलाके में आंगा देव की पूजा और जात्रा के प्रमाण मिलते हैं.

हर साल होती है आंगा देव जात्रा

छत्तीसगढ़ के बस्तर में ही आंगा देव की जात्रा देखने को मिलता है. बस्तर के विश्व प्रसिध्द दशहरा के दौरान आंगा देव जात्रा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के रथ निकलने के बाद आंगा देव को निकाला जाता है.

आदिवासी समुदाय के लोग एक गांव में एकत्रित हो कर आंगा देव जात्रा को मनाते हैं. इसमें सभी आदिवासी समुदाय के लोग आते है और आंगा देव पूजा के बाद मेला का आंनद लेते हैं.

Exit mobile version