Site icon Mainbhibharat

झारखंड के पाकुड़ में धूमधाम से मनाया जा रहा है करमा पर्व

झारखंड के पाकुड़ जिले में करमा पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम के साथ मनाया जाता हैं.

यह पर्व आदिवासी समुदाय के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह प्रकृति पूजन और भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक माना जाता है.

इस अवसर पर आदिवासी महिलाएं ढोल और मांदर की थाप पर खूब नाचती हैं और गीत गाती हैं, जिससे पूरा माहौल उत्सवमय हो जाता है.

करमा पर्व न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति और परंपराओं का एक जीवंत प्रदर्शन भी है, जो झारखंड के ग्रामीण इलाकों में गहरी जड़ें रखता है.

करमा पर्व का इतिहास और इसकी सांस्कृतिक महत्ता आदिवासी समुदाय में गहरे तक समाई हुई है.

यह पर्व प्रकृति के प्रति आदिवासियों के सम्मान और उनकी जीवनशैली को दर्शाता है.

आदिवासी समाज प्रकृति को अपना देवता मानता है और करमा पूजा में करम डाली को ईश्वर यानी प्रकृति का प्रतीक मानकर उसकी पूजा करता है.

यह परंपरा न केवल पर्यावरण के प्रति उनके लगाव को दर्शाती है, बल्कि भाई-बहन के रिश्ते की मजबूती को भी उजागर करती है.

इस पर्व में बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि और लंबी उम्र की कामना करती हैं.

मेलर आदिम जनजाति संघर्ष मोर्चा संगठन के जिला अध्यक्ष पुरुषोत्तम राय बताते हैं कि करमा पर्व केवल एक दिन का उत्सव नहीं है, बल्कि यह सात दिनों तक चलने वाला उत्सव है.

कुछ जगहों पर यह पर्व तीन, पांच, सात या नौ दिनों तक मनाया जाता है.

इस दौरान विवाहित और अविवाहित महिलाएं निर्जला उपवास रखती हैं और रात में जागरण करके करम डाली की पूजा करती हैं.

यह उपवास और पूजा भाई-बहन के अटूट विश्वास और प्यार को दर्शाता है.

पर्व के दौरान भाई अपने हाथों से करम डाली लाता है और उसे घर के आंगन में स्थापित करता है.

इसके बाद सभी बहनें मिलकर उसकी पूजा करती हैं और अपने भाइयों की सुख-शांति के लिए प्रार्थना करती हैं.

यह प्रथा भाई-बहन के रिश्ते को और मजबूत करती है.

करमा पूजा के दूसरे दिन गाँव के अखड़े में लोग एकत्रित होते हैं और ढोल-मांदर की थाप पर नाचते-गाते हैं.

इस दौरान पूरा गाँव उत्सव के रंग में डूब जाता है.

इसके बाद करम डाली को उखाड़कर उसे तालाब या नदी में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है.

विसर्जन से पहले करम डाली को पूरे गाँव में घुमाया जाता है, क्योंकि मान्यता है कि इससे पूरे गाँव पर करम देव की कृपा बनी रहती है.

विसर्जन की प्रक्रिया के साथ ही यह पर्व संपन्न होता है.

आदिवासी समुदाय इस पर्व के माध्यम से जल, जमीन और जंगल की सुरक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी व्यक्त करता है.

यह पर्व न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक एकता का भी संदेश देता है.

Exit mobile version