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केरल: लापता आदिवासी बच्ची की मां का ब्रेन मैपिंग टेस्ट करवाने की तैयारी में पुलिस

केरल पुलिस ने नीलांबूर इलाके की एक 31 वर्षीय आदिवासी महिला पर ब्रेन मैपिंग टेस्ट कराने की तैयारी कर रही है.

यह कदम आदिवासी महिला की तीन साल की बेटी के लापता होने के मामले में उठाया जा रहा है.

पिछले एक साल से गुमशुदगी के इस मामले में कोई ठोस सुराग नहीं मिला है.

पुलिस का कहना है कि ब्रेन मैपिंग टेस्ट तभी किया जाएगा जब महिला के नज़दीकी रिश्तेदारों की सहमति और कोर्ट से अनुमति मिलेगी.

क्यों लिया गया ब्रेन मैपिंग का फैसला

पुलिस के अनुसार, महिला मानसिक रूप से कमज़ोर है और स्वास्थ्य कारणों से उस पर पॉलीग्राफ या नार्को टेस्ट संभव नहीं है.

जांच में कोई प्रगति नहीं होने के कारण, पुलिस ने ब्रेन मैपिंग को विकल्प के रूप में चुना है.

अगर कोर्ट मंजूरी देता है तो यह चोलानाइकन जनजाति की किसी महिला पर ब्रेन मैपिंग टेस्ट का पहला मामला होगा.

चोलानाइकन समुदाय पश्चिमी घाट के जंगलों में रहने वाला एक बहुत छोटा और दुर्लभ आदिवासी समूह है.

इस समुदाय का बाहरी दुनिया से संपर्क सीमित है और ये अपनी अलग भाषा और परंपराओं के लिए जाने जाते हैं.

यह जनजाति विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) में शामिल है.

क्या होता है ब्रेन मैपिंग टेस्ट ?

ब्रेन मैपिंग को ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग भी कहा जाता है. इस तकनीक में व्यक्ति के सिर पर इलेक्ट्रोड लगाकर दिमाग की तरंगों को पढ़ा जाता है.

घटना से जुड़े चित्र या सवाल दिखाए जाते हैं और दिमाग की प्रतिक्रिया कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के जरिए दर्ज की जाती है.

इससे पता लगाने की कोशिश की जाती है कि व्यक्ति को घटना के बारे में जानकारी है या नहीं.

यह तकनीक पहले भी आरुषी तलवार हत्याकांड जैसे कई बड़े मामलों में इस्तेमाल की जा चुकी है.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि यह टेस्ट स्वेच्छा से ही किया जा सकता है.

बच्ची के लापता होने की घटना

यह मामला जून 2024 का है. अचानाला बस्ती में रहने वाली महिला को उस दिन तेज बुखार था.

उसके रिश्तेदार तीन साल की बच्ची को उसके पास छोड़कर जंगल में शहद लेने गए थे.

जब वे लौटे तो महिला और बच्ची दोनों गायब थे.

महिला तीन दिन बाद जंगल में मिल गई थी. लेकिन बच्ची का अब तक कोई पता नहीं चला.

घटना की जानकारी पुलिस को लगभग दो हफ्ते बाद दी गई.

पुलिस जांच में चुनौतियां

पश्चिमी घाट के घने जंगलों में पुलिस और वन विभाग ने बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चलाया लेकिन बच्ची का कोई सुराग नहीं मिला.

चोलानाइकन जनजाति की अलग द्रविड़ भाषा की वजह से भी संवाद में दिक्कत आई.

इसके अलावा इस बस्ती तक पहुंचने के लिए करीब तीन घंटे पैदल जंगल पार करना पड़ता है, ये भी इस मामले को सुलझाने में एक समस्या बताई गई है.

शुरू में चोलानाइकन जनजाति के लोगों मामले की तहकीकात कर रही पुलिस से दूरी बनाई लेकिन धीरे-धीरे बातचीत होने से भरोसा बना है.

अब पुलिस नीलांबूर की अदालत में ब्रेन मैपिंग की अनुमति के लिए अर्जी लगाने वाली है.

अगर मंजूरी मिल जाती है तो यह जांच इस मामले में नई दिशा दे सकती है. हालांकि, पुलिस का मानना है कि यह तकनीक केवल सुराग दे सकती है, पुख्ता सबूत नहीं.

(Image is just for representation)

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