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कुड़मी-मेहतो मुद्दा झारखंड में क़ानून व्यवस्था के मुश्किल हालात पैदा कर सकता है

अप्रैल के पहले हफ्ते में ओडिशा और बंगाल की सीमा से सटे झारखंड के जिलों में कुड़मी-महतो समुदाय का पांच दिवसीय विरोध प्रदर्शन काफी शक्तिशाली था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों ने 60 किलोमीटर लंबे हाईवे को जाम कर दिया था. 

इस बीच, रेलवे अधिकारियों ने कहा था कि 435 ट्रेनों को रद्द करना पड़ा, जिससे 1,700 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ. सितंबर में ट्रेनों को रोकने और इसी तरह की मांगों के लिए एक हाईवे को ब्लॉक करने के छह महीने के भीतर समुदाय द्वारा यह दूसरी बड़ी हलचल थी. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि विरोध फिर से शुरू नहीं होगा.

क्योंकि समुदाय के एक प्रभावशाली नेता ने चेतावनी दी है कि अगर इस साल सितंबर तक उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे फिर से आंदोलन करेंगे. दूसरी ओर आदिवासी कुड़मी समुदाय की मांगों के विरोध में सड़क पर उतर गए हैं.

सोमवार यानि 22 मई, 2023 को आदिवासी सेंगेल अभियान ने 12 घंटे का बंद रखा था. 12 घंटे की बंगाल हड़ताल ने दक्षिण दिनाजपुर और मालदा जिलों के कुछ क्षेत्रों को प्रभावित किया. झारग्राम, पश्चिमी मिदनापुर, पुरुलिया और बांकुड़ा जिलों में भी बंद का थोड़ा-बहुत असर दिखा.

वहीं बालुरघाट में महिलाओं समेत सैकड़ों आदिवासी सड़कों पर उतर आए और घंटों तक प्रदर्शन किया. उन्होंने शहर के प्रमुख चौराहे हिली मोड़ पर यातायात रोक दिया था जिसके बाद पुलिस को मौके पर जाना पड़ा.

हड़ताल के कारण पूरा दिन कस्बे में सन्नाटा पसरा रहा. निजी बसें सड़कों से नदारद रहीं और कुछ सरकारी बसें इलाके में दौड़ीं. उत्तर बंगाल में एएसए के जोनल अध्यक्ष मोहन हांसदा ने कहा, “हम नहीं चाहते कि कुर्मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए. राज्य और केंद्र सरकारों को यह समझना चाहिए कि इस तरह के फैसले से बड़े पैमाने पर विरोध हो सकता है जैसा कि हाल ही में मणिपुर में हुआ है.”

कुड़मी बार-बार विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या हैं उनकी मांगें?  झारखंड में जो हो रहा है वह मणिपुर में हाल के घटनाक्रमों से काफी मिलता जुलता नज़र आता है. वहां भी राज्य का एक प्रभावशाली समुदाय खुद को आदिवासियों की सूचि में शामिल कराने की मांग कर रहा है. इस समुदाय के खिलाफ राज्य की अनुसूचित जनजाति उतर आई हैं.

मणिपुर की आबादी लगभग 35 लाख है, जिसमें मैईती, नागा और कुकी तीन सबसे बड़े समुदाय हैं. ज्यादातर हिंदू धर्म को मानने वाले मैईती आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा समुदाय हैं, जबकि नागा और कुकी को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है और ये बड़े पैमाने पर ईसाई धर्म का पालन करते हैं.

लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या हिस्सेदारी के साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व में मैईती समुदाय का दबदबा है. यह समुदाय अनुसूचित जनजाति दर्जे की मांग कर रहा है. क्योंकि इनका कहना है कि उन्हें 1949 से पहले आदिवासियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जब मणिपुर को भारत संघ में विलय कर दिया गया था.

लेकिन नागा और कुकी जनजातियों ने मैईती की मांगों का विरोध किया है, यह तर्क देते हुए कि ये समुदाय एसटी के रूप में योग्य नहीं है और वे पहले से ही ओबीसी और एससी श्रेणियों के तहत आरक्षण का आनंद ले रहे हैं. अगर मैतेई को एसटी का दर्जा दिया जाता है तो इससे राज्य की अन्य जनजातियों के लिए नौकरियों और उच्च अवसरों में कमी आएगी.

इसी तरह कुड़मी-महतो और आदिवासियों के बीच दरार पैदा हो गई हैय कुड़मी लंबे समय से अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं. उनका दावा है कि उन्हें 1950 तक इस श्रेणी में शामिल किया गया था.

समुदाय के मुताबिक, उनकी सबसे बड़ी आबादी झारखंड, बंगाल और ओडिशा में रहती है. झारखंड में इनकी आबादी 72 लाख. बंगाल में 30 लाख और ओडिशा में 25 लाख है. वर्तमान में उन्हें एक अन्य पिछड़ी जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है. समुदाय ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत एसटी का दर्जा देने की मांग की है.

इन लोगों का कहना है कि ब्रिटिश राज में 1931 की अनुसूचित जनजाति की सूची में कुड़मी समुदाय शामिल था। 1950 तक कुर्मी एसटी के तौर पर ही जाने जाते थे. लेकिन 1950 में आई सूची में इन्हें एसटी से निकालकर ओबीसी में रखा गया.

कुड़मी-महतो की मांग की उत्पत्ति

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि 1921 की जनगणना तक कुड़मी महतो समुदाय को जीववादी और आदिवासी माना जाता था. हालांकि, उन्हें 1931 में इस श्रेणी से हटा दिया गया था.

दूसरे विश्व युद्ध के कारण 1941 में कोई जनगणना नहीं की गई थी. फिर 1950 में जब संविधान लागू हुआ तो उन्हें एसटी में शामिल नहीं किया गया. बाद में इसी आधार पर उन्हें ओबीसी में शामिल कर लिया गया.

जबकि कुछ एंथ्रोपोलॉजिस्ट मानते हैं कि कुडमी-महतो मूल रूप से किसान थे और सामाजिक रूप से आर्थिक रूप से शक्तिशाली समुदाय बनाते हैं. वे लंबे समय तक खुद को क्षत्रिय (योद्धा) मानते थे.

अखिल भारतीय कुड़मी क्षत्रिय महासभा की स्थापना 1894 में हुई थी और यह 1930 तक सक्रिय रही. इस समुदाय ने खुद को मराठा राजा शिवाजी से भी जोड़ा. इसके परिणामस्वरूप तेजी से हिंदूकरण हुआ और उनकी आदिवासी पहचान गायब हो गई. इस तरह, 1931 तक वे दूसरी (हिंदू) जाति में बदल गए थे.

रिसर्चर कुमार सुरेश सिंह के पेपर ‘छोटा नागपुर में महतो-कुर्मी महासभा आंदोलन’ का हवाला देते हुए कहते हैं: “1969 में विनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में शिवाजी समाज का गठन किया गया था. 1973 में यह पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाने के लिए अन्य समूहों के साथ विलय हो गया और अलग राज्य के लिए झारखंड आंदोलन में शामिल हो गया. समानांतर रूप से कुड़मी भी 1970 के दशक के मध्य में एसटी दर्जे की मांग उठाना शुरू कर देते हैं.”

झारखंड बन सकता है दूसरा मणिपुर: सलखान मुर्मू

सितंबर 2022 में केंद्र सरकार द्वारा पांच राज्यों की कई अनुसूचित जातियों को एसटी श्रेणी में शामिल करने के फैसले के बाद कुड़मी-महतो ने अपना आंदोलन तेज़ कर दिया है. पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो – जिन्होंने 1989 में पूर्वी सिंहभूम निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था, ने आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

हाल ही में उनका बयान आया है जिसमें वे कहते हैं, “हम नाराज हैं क्योंकि 2004 में जब अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री थे, उन्होंने हमारी मांग पर सहमति जताई थी और केंद्र सरकार को एसटी में शामिल करने की सिफारिश की थी. अब वे केंद्र में आदिवासी मामलों के मंत्री हैं लेकिन अपनी सिफारिश पर काम करने से इनकार करते हैं. अगर सितंबर 2023 तक हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो हम फिर से देशव्यापी आंदोलन शुरू करेंगे. हमारी मांग 1972 की है. पटना हाईकोर्ट ने 1924, 1939 और 1963 में हमारे पक्ष में तीन फैसले दिए हैं, जिनमें से सभी स्वीकार करते हैं कि कुड़मी-महतो एक जनजाति हैं.”

इस बीच एक अन्य पूर्व सांसद और आदिवासी सेंगेल अभियान के नेता सलखन मुर्मू ने लगातार कुड़मियों की मांग का विरोध किया है. उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय ने इस संबंध में 15 जून को भारत बंद का आह्वान किया है.

उन्होंने कहा, “यहां करो या मरो का नारा है. झारखंड एक और मणिपुर में बदल सकता है क्योंकि अगर कुड़मी-महतो को एसटी का दर्जा दिया जाता है तो यह असली एसटी के लिए मौत का झटका साबित होगा. अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत होने के बाद वे (कुड़मी) सभी चुनावों, नौकरियों और शिक्षा पर हावी हो जाएंगे. वे हमारी जमीन भी हड़प लेंगे. भविष्य में यहां तक कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कुड़मी भी यहां आ सकते हैं और एसटी दर्जे का लाभ उठा सकते हैं.”

सलखान मुर्मू ने आगे कहा, “उन्होंने एसटी के हितों के खिलाफ हाईकोर्ट में रिट दायर की है. इसी तरह आजसू पार्टी (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) के सांसद चंद्र प्रकाश चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट में केस किया कि झारखंड के स्थानीय निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण सुनिश्चित किया जाए. लेकिन दूसरी तरफ वे एसटी में शामिल होना चाहते हैं. वे केवल इसलिए आंदोलन कर रहे हैं क्योंकि वे आरक्षण का लाभ उठाना चाहते हैं. अगर आप गांवों में एक सर्वेक्षण करते हैं तो पूरा आदिवासी समुदाय उनकी मांग का विरोध करता है.”

हालांकि, कुड़मी-महतो समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने की मांग का झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल की तीनों राज्य सरकारों ने समर्थन किया है.

अनुसूचित जनजाति की सूचि में समुदायों को शामिल करने पर बहस

पिछले एक साल में संसद में बार बार यह मुद्दा आता रहा है. क्योंकि सरकार की तरफ से अलग अलग राज्यों में कई समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के बिल पेश किये. हर बार विपक्ष की तरफ से सरकार को चेताया गया कि इस मामले में सरकार को एक व्यापक बिल लाना चाहिए. 

क्योंकि देश के अलग अलग राज्यों से इस तरह की मांग लगातार होती रही है. लेकिन सरकार ने विपक्ष की सलाह और चेतावनी को खारिज कर दिया. यह एक ऐसा मुद्दा है जो मणिपुर या झारखंड नहीं बल्कि असम और कई अन्य राज्यों में नए आंदोलन को जन्म दे सकता है. 

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