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केरल: भूमिहीन आदिवासियों ने फिर शुरू की अपने हक़ की लड़ाई

केरल में आदिवासी गोत्रा महासभा (एजीएम) के बैनर तले करीब 100 भूमिहीन आदिवासी परिवारों ने दो दशकों के बाद एक बार फिर वायनाड ज़िले के इरुलालम के पास पंबरा में भूमि आंदोलन शुरू कर दिया है.

एजीएम नेता एम. गीतानंदन ने द हिंदू को बताया कि यह आंदोलन मुतंगा आंदोलन में शामिल आदिवासी परिवारों को ज़मीन मुहैया कराने में सरकार की उदासीनता के ख़िलाफ़ शुरु हुआ है.

गीतानंदन ने यह भी कहा कि सरकार द्वारा आदिवासियों की मांगों को पूरा करने का वादा किए जाने के बाद, संगठन ने सचिवालय के सामने अपना ‘निल्पु समरम’ (खड़ा विरोध) वापस ले लिया था. इन मांगों में मुतंगा आंदोलन में शामिल आदिवासी परिवारों के लिए पुनर्वास पैकेज और आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए आदिवासी बच्चों और दूसरे पीड़ितों के लिए मुआवजा शामिल है.

सरकार 295 भूमिहीन आदिवासी परिवारों को एक-एक एकड़ भूमि देने के लिए सहमत हो गई थी, लेकिन सरकार अपना वादा निभाने में विफल रही है.

सरकार ने जिले के अलग-अलग हिस्सों में परिवारों को जमीन आवंटित की, लेकिन कई जमीनें इस्तेमाल के लायक नहीं थीं, या बंजर थीं.

गीतानंदन का कहना है कि वन और पर्यावरण मंत्रालय ने भूमिहीन आदिवासी परिवारों के पुनर्वास के लिए मुतंगा आंदोलन के बाद 2004 में जिले में 7,000 एकड़ भूमि समेत राज्य में 19,000 एकड़ भूमि सौंपी थी.

वो दावा करते हैं कि वायनाड में भूमि का एक बड़ा हिस्सा या तो केरल पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, ‘एन्नुरु’ परियोजना, आदिवासी बच्चों के लिए नवोदय स्कूल और मॉडल आवासीय विद्यालय जैसी सरकारी परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल किया गया या प्रमुख राजनीतिक दलों के कई आदिवासी फीडर संगठनों द्वारा अतिक्रमण कर लिया गया था.

सरकार ने 2016 में केरल वन विकास निगम (केएफडीसी) के तहत पंबरा के मरियानाड एस्टेट में 65 परिवारों को एक-एक एकड़ जमीन आवंटित की थी. एस्टेट की 235 एकड़ भूमि भूमिहीन आदिवासियों को बांटने के लिए वितरित करने के लिए शामिल की गई थी.

लेकिन सरकार ने समयबद्ध तरीके से भूमि का वितरण नहीं किया क्योंकि एस्टेट के मज़दूरों ने अधिकारियों को भूमि का सर्वेक्षण करने से रोका. उनके इंसेंटिव और दूसरे लाभों का भुगतान करने में सरकार की ढिलाई ने इन मज़दूरों को उकसाया था.

चूंकि इस मुद्दे को अभी तक सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जाना बाकी है, 65 परिवार अभी भी भूमिहीन हैं.

फ़िलहाल 100 भूमिहीन आदिवासी परिवारों के करीब 400 सदस्य ज़मीन के टुकड़े से पेड़-पौधे टहाकर उस पर झोपड़ियां बनाकर आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार भूमिहीन आदिवासियों के प्रति उदासीनता जारी रखती है तो आने वाले दिनों में आंदोलन और तेज किया जाएगा.

क्या है मुतंगा आंदोलन?

मुतंगा आंदोलन केरल के वायनाड जिले के मुतंगा गांव में आदिवासियों पर पुलिस फायरिंग की एक घटना से जुड़ा है. 19 फरवरी 2003 को आदिवासी गोत्रा महासभा (AGM) के तहत केरल सरकार द्वारा आदिवासियों को भूमि आवंटित करने में देरी का विरोध करने के लिए यह लोग जमा हुए थे.

विरोध के दौरान, केरल पुलिस ने 18 राउंड फायरिंग की, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई, जिनमें से एक पुलिस अधिकारी था. बाद में एक बयान में, सरकार ने आधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या पांच बताई. कई न्यूज़ चैनलों पर गोलीबारी का वीडियो प्रसारित हुआ.

आदिवासियों को मुतंगा जंगल से बेदखल करने के लिए उनकी झोपड़ियों में आग लगाई गई

इस आंदोलन को समझने के लिए हमें दो साल और पीछे जाना होगा. आदिवासियों ने अगस्त 2001 में केरल में अपने कई सदस्यों की भुखमरी से मौत के बाद विरोध करना शुरू कर दिया था. विरोध मुख्य रूप से एके एंटनी (केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री) के आधिकारिक आवास के सामने शिविर स्थापित करके किया गया था.

48 दिनों तक विरोध प्रदर्शन जारी रहा, जिसके बाद केरल सरकार आदिवासियों को भूमि के वितरण और दूसरे पुनर्वास उपायों का वादा करने के लिए मजबूर हुई.

लेकिन जब राज्य सरकार की तरफ़ से अपने वादे को पूरा करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए, तो आदिवासियों ने अपना विरोध फिर से शुरू कर दिया. वायनाड के आदिवासियों ने आदिवासी गोत्रा महासभा (AGM) के बैनर तले जंगल में प्रवेश करने का फैसला किया.

मुतंगा जंगल, जहां एजीएम ने झोपड़ियां लगाईं, वायनाड में विभिन्न आदिवासी समुदायों की मातृभूमि के रूप में जाना जाता है. 1960 के दशक के दौरान मुतंगा के एक अभयारण्य घोषित किए जाने के बाद, आदिवासी परिवारों को वहां से बाहर निकाल दिया गया. इसके बाद 1980 के दशक में फिर से यूकलिप्टस के बागानों के लिए जगह बनाने के लिए पिर से आदिवसियों को जबरन बाहर किया गया.

जंगल में प्रवेश करने वाले आदिवासी परिवारों ने आदिवासी ऊरुकूटम (पंचायती राज के समान) को फिर से शुरू करके और खेती करके मुतंगा जंगलों पर अपने पारंपरिक अधिकार का दावा करने की ठानी.

बेदखली के हिस्से के रूप में, वन विभाग पर आदिवासी झोपड़ियों को आग लगाने और पालतू हाथियों को शराब पिलाने का आरोप लगाया गया, ताकि जानवरों को आदिवासी झोपड़ियों पर हमला करने के लिए प्रेरित किया जा सके.

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