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संविधान की सुरक्षा, क़ानूनी प्रवाधान, फिर क्यों लुटता-पिटता है आदिवासी

दुनिया भर के आदिवासी समाजों ने हमारे वर्तमान की कीमत चुकाई है. इसमें प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो या फिर हमारे वक्त की राजनैतिक व्यवस्था, सबसे ज़्यादा प्रभावित हर बार, हर जगह आदिवासी ही हुए. फ्रीका के मैदान हों या अमेरिका के धूसर पहाड़ या फिर अमेज़न से लेकर झारखंड तक के जंगल. 

भारत के आदिवासियों की कहानी भी वही है जो दुनियाभर के आदिवासियों की है. 

विस्थापन, दमन और कथित आधुनिकता का वो प्रहार, जो सीधे उनकी जड़ों पर होता है. भारत जैसे लोकतंत्रों ने आदिवासियों की संख्या को एक हद तक राजनैतिक शक्ति बना दिया है. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के हितों के लिए कितना हुआ ये अलग बहस है. 

भारत में आदिवासी राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ वोटों तक ही सीमित रह गए हैं. 

साल 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी हिस्सा आदिवासी समुदाय से मिलकर बना है. ज्यादातर आदिवासी समुदाय ओड़िशा में हैं. देश में वर्तमान में लगभग 700 आदिवासी समूह और 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) हैं. इनमें गोंड समुदाय देश का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. 

समाज की मुख्यधारा से दूर होने के चलते आदिवासी समाज अत्यधिक सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन से पीड़ित हैं. वैसे तो संविधान में इन समुदायों को आदिवासी और जनजातीय मानते हुए उन्हें कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं. साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि उन्हें अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए देश की बाकी जनसंख्या के समान ही सभी संभव अवसर प्राप्त हो ताकि वे अपने जीवनस्तर को ऊंचा उठा सकें, तरक्की प्राप्त कर सकें. 

अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान

देश के संविधान में आदिवासी और जनजातीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रावधान किए गए हैं. संविधान की 5वीं और छठवीं अनुसूची में अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण की बात कही है. 

अनुच्छेद 342(1) में संबंधित राज्य अथवा केन्द्र शासित प्रदेश के संबंध में जनजातीय व आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति के रूप में रखा गया है. इसके अलावा अनुच्छेद 15 तथा 16 उनके साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करने और लोक नियोजन के मामलों में अवसर की समानता देने की बात कहते हैं. 

अनुच्छेद 46 के तहत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को सुरक्षित किया गया है. अनुच्छेद 335 और 338ए के तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना की गई है और अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के सरकारी नौकरी पाने के अधिकार को सुरक्षित किया गया है. 

आदिवासी और जनजातियों की सुरक्षा के लिए क़ानूनी प्रावधान

नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 आदिवासियों के साथ होने वाली अस्पृश्यता (छुआछूत) के विरुद्ध अधिकारों की रक्षा करता है. 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की रोकथाम करता है. 

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों के अधिकारों को मान्यता देता है. 

इसी तरह पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 में संविधान के भाग IX के तहत पंचायतों को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार करने का अधिकार दिया गया है.

हालांकि आदिवासी समाज के लिए कई तरह के संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधान उपलब्ध हैं. लेकिन इसके बावजूद आए दिन उनके अधिकारों का हनन होता रहता है. ऐसे में सवाल उठता है कि इन लोगों के अधिकारों और सुरक्षा के लिए बनाए गए प्रावधानों तक आखिर कितनी पहुंच है.

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