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मध्य प्रदेश: आदिवासियों के लिए वन अधिकारों तक पहुंच बेहद मुश्किल

मंडला ज़िले में बैगा आदिवासी वन भूमि पर पीढ़ियों से कई तरह की फसलें- चावल, गेहूं, कोदो बाजरा, मक्का, चना, अरहर, मसूर, रामतिल (नाइजर बीज) और सरसों उगा रहे हैं.

लेकिन यहां के कई आदिवासी गांवों के अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत व्यक्तिगत वन अधिकार (Individual Forest Rights) प्राप्त नहीं हुआ है, जिसे वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) के रूप में भी जाना जाता है.

मोहगांव ब्लॉक के 12 गांवों के आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को भी इसी तरह की दुर्दशा का सामना करना पड़ता है.

यहां पर कई आदिवासी परिवारों से MBB की बातचीत में यह बात सामने आई. यहां पर आदिवासियों ने हमें बताया कि कोई पट्टा (land title) नहीं का मतलब पीएम/सीएम किसान सम्मान निधि जैसी सरकारी योजनाओं के तहत कोई लाभ नहीं, उर्वरकों या बीजों पर कोई सब्सिडी नहीं और घरेलू बिजली कनेक्शन भी नहीं है. इस सबके ऊपर विस्थापन का डर है. अगर वन विभाग कोई कार्रवाई करेगा तो हम बड़ी मुसीबत में पड़ जाएंगे.

यहां पर सोनसा बैगा नाम के एक आदिवासी का कहना था कि उनकी आजीविका का स्रोत आठ एकड़ पैतृक संपत्ति है. उनका दावा था कि उन्होंने उन्होंने वर्षों से पट्टे के लिए आवेदन किया है लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ.

उन्होंने एमपी वन मित्र पोर्टल पर दो बार आवेदन करने का कष्ट भी सहा क्योंकि वे ऑनलाइन व्यवस्था से परिचित नहीं थे. फिर भी इनके दावे शून्य हो गए. अस्वीकृति के संबंध में सरकार की ओर से कोई सूचना भी नहीं दी गई.

2011 की जनगणना के मुताबिक, मध्य प्रदेश में देश की सबसे अधिक जनजातीय आबादी (1.53 करोड़) है. वन अधिकार अधिनियम (FRA) आदिवासी और वन-निवासी समुदायों के व्यक्तिगत और सामुदायिक भूमि स्वामित्व के दावों को मान्यता देता है. अगर वे सबूत प्रस्तुत करते हैं कि वे 13 दिसंबर, 2005 को या उससे पहले जंगल में रह रहे हैं और अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं.

इस तरह एक आदिवासी परिवार 10 एकड़ तक की वन भूमि के स्वामित्व का दावा कर सकता है. दावों की जांच ग्राम सभा और अनुमंडल और जिला स्तर पर की जाती है.

2008 में वाइल्डलाइफ फ़र्स्ट, वाइल्डलाइफ़ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी, और टाइगर रिसर्च एंड कंज़र्वेशन ट्रस्ट ने वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिक वैधता का आकलन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट (SC) का रुख किया, ये तर्क दिया कि यह वनों की कटाई और अतिक्रमण को बढ़ावा देगा.

याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने 13 फरवरी, 2019 को उन सभी को बेदखल करने का आदेश दिया, जिनके दावे एफआरए के तहत खारिज कर दिए गए थे. इस आदेश से 20 राज्यों के एक करोड़ से अधिक आदिवासी बेघर होने के करीब पहुंच गए हैं.

दो हफ्ते बाद अदालत ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय की एक याचिका पर बेदखली की कार्यवाही पर रोक लगा दी और सभी राज्यों को फिर से जांच करने का निर्देश दिया कि क्या दावों को खारिज करते समय कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था.

तब से अदालत ने विभिन्न राज्यों के मुख्य सचिवों को लगभग 240 नोटिस जारी किए हैं, उन्हें एफआरए कार्यान्वयन की स्थिति पर हलफनामा जमा करने का आदेश दिया है. हालांकि, कोविड-19 महामारी के कारण 22 जनवरी, 2020 और 13 सितंबर, 2022 के बीच कोई सुनवाई नहीं हुई है.

तीन न्यायाधीशों वाली संवैधानिक पीठ ने अपनी अंतिम सुनवाई गत 10 नवंबर को निर्धारित की थी लेकिन न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की सेवानिवृत्ति के कारण ये नहीं हो सका. अभी नई संवैधानिक बेंच के गठन का इंतजार है.

वहीं दिसंबर 2019 में देश में अपनी तरह की पहली पहल में मध्य प्रदेश सरकार ने अस्वीकृत दावों की समीक्षा करने और दावा निवारण की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए वन मित्र पोर्टल और मोबाइल ऐप लॉन्च किया.

राज्य द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे के अनुसार, 2008 और जनवरी 2019 के बीच प्राप्त कुल 5 लाख 79 हजार 411 व्यक्तिगत वन अधिकार दावों में से 3 लाख 54 हजार 787 (61.2 प्रतिशत) को खारिज कर दिया गया था.

वन मित्र पोर्टल के सक्रिय होने के बाद पिछले नवंबर तक 6 लाख 27 हजार 513 दावे (5,85,326 व्यक्तिगत और 42 हजार 187 सामुदायिक) प्राप्त हुए थे. उनमें से सिर्फ 2 लाख 94 हजार 585 दावों (2 लाख 66 हजार 609 व्यक्तिगत और 27 हजार 976 सामुदायिक) को मंजूरी दी गई थी.

कोई समाधान नजर नहीं आने पर 300 से अधिक आदिवासियों ने हाल ही में मंडला जिले में पट्टे के लिए एक अभियान शुरू किया और जिला कलेक्टर को एक व्यक्तिगत ज्ञापन सौंपा.

नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति की नेता शारदा यादव ने MBB से इस बारे में बातचीत में कहा कि राज्य के 89 आदिवासी विकास खंडों में आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को दावों के साथ समस्याओं का सामना करना पड़ा.

शारदा यादव ने कहा, “मुझे यकीन है कि जब वन कर्मचारी उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे तो ज्यादातर आदिवासियों को उनके दावों की अस्वीकृति के बारे में पता चल जाएगा. एफआरए में दावेदार को लिखित रूप में सूचित करने का प्रावधान है ताकि वे अस्वीकृति के खिलाफ अपील कर सकें. लेकिन इसका पालन नहीं किया जाता है.”

वनाधिकार कानून-2006 को लागू हुए 16 साल हो गए हैं लेकिन आज तक देश में वन भूमि पर अधिकार के 50 प्रतिशत दावों को ही मान्यता (टाइटल/मालिकाना हक) प्रदान की जा सकी है. इतना ही नहीं जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि सामुदायिक दावों की तुलना में व्यक्तिगत दावों में अस्वीकृति (रिजेक्शन) या लंबितता (पेंडेंसी) की दर अधिक है.

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