मध्य प्रदेश के अलीराजपुर ज़िले के सोंदवा गाँव में इस बार फिर जनजातीय रंगों की बहार छा गई है.
यहाँ 25 अक्टूबर से 27 अक्टूबर 2025 तक चलने वाला तीन दिनों का प्रसिद्ध मधाई महोत्सव शुरू हुआ है.
इस महोत्सव में देश के पाँच राज्यों से आए आदिवासी कलाकार अपनी परंपरागत कला, नृत्य, गीत और लोककथाओं से सभी का मन मोह रहे हैं.
यह उत्सव सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि जनजातीय समाज की परंपराओं और उनकी पहचान को सम्मान देने का एक बड़ा मंच है.
मधाई महोत्सव का नाम सुनते ही लोगों के मन में रंग, संगीत और उत्सव की छवि बन जाती है. ‘मधाई’ शब्द अपने आप में पुरानी परंपराओं का प्रतीक है.
पुराने समय में गाँवों और कस्बों में य ह मेला सामाजिक मेल-मिलाप का अवसर होता था, जहाँ लोग अपने दुख-सुख बाँटते, सामान खरीदते-बेचते और नए रिश्ते बनाते थे.
अब यही परंपरा आधुनिक रूप में हर साल महोत्सव के रूप में मनाई जाती है.
सोंदवा का पूरा इलाका इन दिनों सज गया है.
सड़कों के किनारे झंडे-पताकाएँ लहरा रही हैं, लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नाचते-गाते हुए नजर आ रहे हैं. ढोल-मांदर और मृदंग की थाप पूरे क्षेत्र में गूंज रही है.
मंच पर अलग-अलग राज्यों से आए कलाकार अपनी पारंपरिक नृत्य शैलियाँ पेश कर रहे हैं — जैसे गोंडों का कर्मा नृत्य, सैला, गड़ली, मुखोटा-नृत्य और परधौनी नृत्य.
हर प्रस्तुति में उनकी संस्कृति और जीवन की झलक दिखाई देती है.
मधाई महोत्सव में इस बार मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कलाकार भाग ले रहे हैं.
उनकी पोशाकें, गीतों के बोल और नृत्य-शैली अलग हैं, लेकिन भावना एक ही है — अपनी संस्कृति को जीवित रखना और उसे दुनिया के सामने लाना.
जब ये कलाकार मंच पर आते हैं, तो लगता है जैसे पूरी धरती उनके कदमों की थाप पर थिरक उठी हो.
यह महोत्सव मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग और ट्राइबल म्यूज़ियम भोपाल द्वारा आयोजित किया जा रहा है.
आयोजन के प्रमुख अशोक मिश्रा का कहना है कि यह कार्यक्रम सिर्फ नृत्य-गीतों का मंच नहीं है, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहाँ जनजातीय समुदाय अपनी पहचान, अपनी परंपराओं और अपनी कहानियों को गर्व से साझा करते हैं.
उनके अनुसार, “यह उत्सव एकता और नवीनीकरण का प्रतीक है. यह दिखाता है कि परंपराएँ कभी पुरानी नहीं होतीं, अगर उन्हें सच्चे दिल से जिया जाए.”
महोत्सव में हर दिन अलग-अलग थीम रखी गई है.
पहले दिन लोकनृत्यों की झलक दिखाई गई, दूसरे दिन लोककथाओं और पारंपरिक नाटकों का मंचन हुआ और तीसरे दिन हस्तशिल्प प्रदर्शनी लगाई जाएगी.
यहाँ आदिवासी महिलाएँ अपने हाथों से बने आभूषण, मिट्टी के बर्तन, बाँस की वस्तुएँ और कपड़े बेच रही हैं.
यह उनके लिए न सिर्फ सांस्कृतिक प्रदर्शन का अवसर है बल्कि आर्थिक रूप से सशक्त बनने का जरिया भी है.
सोंदवा पहुँचने वाले लोग बताते हैं कि यहाँ का माहौल बेहद उत्साहजनक है.
गाँव-गाँव से लोग झुंड बनाकर आ रहे हैं.
बच्चों के चेहरे पर खुशी झलक रही है, बुजुर्ग पुरानी यादों में खो जाते हैं, जब वे खुद ऐसे मेलों में हिस्सा लिया करते थे.
युवा पीढ़ी मोबाइल फोन से नृत्य-गीतों की रिकॉर्डिंग कर सोशल मीडिया पर साझा कर रही है, जिससे यह महोत्सव देश-भर में चर्चा का विषय बन गया है.
मधाई महोत्सव का असली महत्व यही है कि यह परंपराओं और आधुनिकता के बीच एक सेतु बनाता है.
आज जब शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है और युवा अपने गाँवों से दूर जा रहे हैं, ऐसे में यह उत्सव उन्हें अपनी जड़ों की याद दिलाता है.
यह बताता है कि उनकी संस्कृति कितनी सुंदर और गहरी है. यह आयोजन न सिर्फ मध्य प्रदेश के लिए बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है.
महोत्सव के आखिरी दिन यानी 27 अक्टूबर को एक विशाल समापन कार्यक्रम होगा, जिसमें सभी राज्यों के कलाकार एक साथ प्रस्तुति देंगे.
यह दृश्य बेहद मनमोहक होता है, जब सैकड़ों कलाकार एक ही ताल पर नाचते हैं, रंगीन कपड़ों की छटा चारों ओर फैल जाती है और पूरा मैदान तालियों की गूंज से भर जाता है.

