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मध्य प्रदेश: पत्थर को लोहे में बदल देता है ये आदिवासी परिवार

मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले का एक आदिवासी परिवार पत्थर के टुकड़ों को लोहे में बदल सकता है. लेकिन यह कोई चमत्कार नहीं है और न ही इस परिवार के पास ऐसा करने के लिए कोई अलौकिक शक्तियां हैं. वे अपने पूर्वजों की सिखाई कला का इस्तेमाल करते हैं और यह अनोखा काम कर देते हैं.

ये परिवार वैज्ञानिक प्रक्रिया से पत्थर के टुकड़ों को पूरी तरह से लोहे में बदल देते हैं. इसमें किसी तरह की किसी मशीन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. इस प्रक्रिया के लिए वे सिर्फ प्रकृति पर निर्भर करते हैं और कच्चा माल जंगलों से इकट्ठा करते हैं. अब इस परिवार की कारीगरी को पूरी दुनिया देखेगी.

इस परिवार ने मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के परिसर में आयोजित होने वाले इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 2023 में हिस्सा लेने का फैसला लिया है. इस फेस्टिवल में परिवार अपने अपने कौशल का प्रदर्शन करेगा. यहां पहुंचने के लिए परिवार के 7 सदस्यों ने 460 किमी दूरी तय की है. चार दिवसीय विज्ञान महोत्सव शनिवार (21 जनवरी) से शुरू हुआ है.

राज्य के मंडला, डिंडोरी, बालाघाट और सीधी जिलों में पाए जाने वाले अगरिया जनजाति के सदस्य मोती सिंह मरावी ने कहा कि हम जो लोहा बनाते हैं, वह जंग मुक्त होता है.

इस तरह से पत्थर बनाना उनका पारिवारिक व्यवसाय है जो वे सदियों से करते आ रहे हैं. मरावी ने कहा, “मैं बचपन से ऐसा कर रहा हूं. हमारे पूर्वजों ने इसकी शुरुआत की थी. हमारा उद्देश्य परंपरा को जीवित रखना है.”

पत्थरों को लोहे में बदलने की प्रक्रिया के बारे में उन्होंने कहा, “वे एक मिट्टी की भट्टी तैयार करते हैं जिसमें वे कोयले के साथ पत्थरों को डालते हैं.”

इस पत्थर को यह लोग कलेजी पत्थर कहते हैं. उन्होंने कहा, “हम धौंकनी की एक जोड़ी के माध्यम से भट्ठी में हवा पंप करते हैं जिसे हम अपने पैरों से संचालित करते हैं. यह प्रक्रिया चार घंटे तक चलती है. 7 किलो पत्थर से लगभग 200 ग्राम लोहा मिलता है.”

उन्होंने कहा कि प्रक्रिया के माध्यम से उत्पादित लोहे की मात्रा पत्थरों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है. मरावी ने कहा कि लोहे का उपयोग कुल्हाड़ी, दरांती, हल, छेनी, हथौड़ा और चिमटा जैसे विभिन्न पारंपरिक उपकरणों को बनाने के लिए किया जाता है.

परिवार की एक महिला, इंद्रावती मरावी ने कहा, “हमारे पूर्वज कालेजी पत्थर की तलाश में जंगलों में जाते थे. पत्थर से लोहा बनाने की कला हमने अपने पूर्वजों से सीखी है.”

परिवार के एक अन्य सदस्य संतू मरावी ने कहा, “हम खेती-किसानी के काम आने वाले उपकरण तैयार करते हैं और साथ ही विज्ञान भवन, आदिवासी संग्रहालय और अन्य जगहों पर लोहे की आपूर्ति करते हैं. हम मांग के हिसाब से ही लोहा बनाते हैं.”

संतू ने कहा, “जंगलों से हमें कच्चा माल मिलता है. हम लकड़ी जलाकर कोयला भी तैयार करते हैं और उसका उपयोग लोहे के निर्माण में करते हैं. हम लगभग सात किलो पत्थर से लगभग 200 ग्राम लोहा बनाने के लिए लकड़ी से बने लगभग 21 किलो कोयले का उपयोग करते हैं.”

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