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आदिवासी महिलाओं ने बनाया ऐसा साबुन कि अमेरिका से आ रहे ऑर्डर

मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की आदिवासी महिलाओं के हुनर को विदेशों में भी पहचान मिल रही है. दरअसल जिले की आदिवासी महिलाओं द्वारा बनाई गई साबुन का अमेरिका से ऑर्डर आ रहा है. ये महिलाएं बकरी के दूध और जड़ी-बूटियों से साबुन बनाती हैं. 

खास बात ये है कि जिन महिलाओं द्वारा ये साबुन बनाई जा रही हैं, वो दिनभर खेतों में सोयाबीन काटती हैं और शाम में साबुन बनाती हैं. कई तरह की समस्याओं का सामना करने के बाद भी इन महिलाओं ने साबुन बनाने में सफलता पाई और अब इनके साबुन की डिमांड भारत से बाहर अमेरिका में भी हो रही है. 

इन महिलाओं द्वारा बनाई गई इन साबुन की कीमत भी खास है और एक साबुन 250-350 रुपए की बिकती है. आयुर्वेदिक और पूरी तरह प्राकृतिक होने के चलते इस साबुन की खासी डिमांड है और इसमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है.

ये खास साबुन कई फ्लेवर में भी मौजूद हैं. जिनमें सुगंधित तेल और दार्जलिंग की चायपत्ती, आम, तरबूज आदि चीजें मिलाकर तैयार किया जाता है. इन साबुन की पैकिंग में पर्यावरण का भी पूरा ख्याल रखा जाता है और इन साबुनों को जूट के पैकिट में पैक किया जाता है.

आयुर्वेदिक साबुन बनाने वाली ये महिलाएं पंधाना विधानसभा क्षेत्र के उदयपुर गांव की रहने वाली हैं. ये एक आदिवासी बाहुल्य गांव है और इन महिलाओं का नाम रेखाबाई बराडे, ताराबाई भास्कले और काली बाई कैलाश है.

तीन साल पहले इन महिलाओं ने ये काम शुरू किया था. भास्कर की एक खबर के मुताबिक पुणे के ली नामक युवक ने उदयपुर गांव में इस प्लांट की शुरुआत की थी. पहले महिलाओं को साबुन बनाने की ट्रेनिंग दी गई. शुरुआत में इनके कुछ प्रोडक्ट असफल भी रहे. हालांकि आखिरकार इनकी बनाई साबुन सफल रही और आज इसकी मांग लगातार बढ़ रही है. देश के कई बड़े शहरों में भी इन साबुनों की मांग है.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी ट्वीट कर साबुन बनाने वाली आदिवासी महिलाओं की तारीफ की. उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “खंडवा के पंधाना विधानसभा के उदयपुर गांव की बहनों ने अनूठा आयुर्वेदिक साबुन बनाकर अपनी सफलता की गूंज अमेरिका तक पहुंचा दिया. प्रदेश को आप पर गर्व है! बहन श्रीमति रेखाबाई जी, श्रीमति ताराबाई जी, श्रीमति कालीबाई जी को इस सफलता के लिए हार्दिक बधाई!”

यह खास साबुन बनाने वाली महिलाओं ने बताया कि अब उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ है. हम गांव की दूसरी महिलाओं को भी इसमें जोड़ना चाहते हैं लेकिन अभी पर्याप्त संसाधन नहीं हैं.

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