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आदिवासियों के जानवर जंगल में नहीं चर सकते, गले की घंटी से ध्वनि प्रदूषण होता है

तमिलनाडु की वाइल्डलाइफ़ सेंचुरी में आदिवासियों के पशु चराने पर प्रतिबंध उनकी आजीविका को बुरी तरह से प्रभावित करेगा. तमिलनाडु ट्राइबल पीपल एसोसिएशन ने इस सिलसिले में मद्रास हाईकोर्ट के फ़ैसले पर पुनर्विचार की अपील की है.

इस संगठन का कहना है कि जंगल में पशु चराना आदिवासी आबादी की जीविका चलाने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है. आदिवासी इलाक़ों में बाक़ी खेतीहर समाज की तुलना में पशु पालने का तरीक़ा अलग है.

आदिवासी इलाक़ों में आमतौर पर पशुओं के लिए चारा खेतों में पैदा नहीं किया जाता है. पशुओं का जंगल में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है. शाम को पशुओं को लाकर बाड़े में रखा जाता है. पीढ़ियों से आदिवासी इस तरीक़े से पशु पालन करते रहे हैं.

इसके साथ ही यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि यह पहाड़ी इलाक़ा है और यहाँ पर पशु पालन का यह एक प्राचीन और स्थाई तरीक़ा रहा है. मद्रास हाईकोर्ट के फ़ैसले से चिंतित लोगों का कहना है कि पशु पालन शायद इंसान का सबसे पुराना काम है. 

मुख्य धारा के समाज में अब पशुओं को पालने का तरीक़ा बदला है. समय के साथ खेती में जानवरों का इस्तेमाल कम हो गया है. लेकिन पहाड़ और जंगलों में रहने वाले आदिवासी अभी भी परंपरागत तरीक़े से ही पशु पालते हैं. इसके अलावा पहाड़ी ढलानों और छोटे साइज के खेतों में अभी भी पशुओं के सहारे ही जुताई का काम किया जाता है. 

ट्राइबल पीपल एसोसिएशन के हवाले से कहा गया है कि जंगल में मवेशी चराने का हक़ फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट में भी दिया गया है. 

हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने वन विभाग को आदेश दिया था कि राज्य के किसी भी वन क्षेत्र में पालतू पशुओं को चराने की अनुमति ना दी जाए. इस सिलसिले में मद्रास हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी.

वाइल्डलाइफ़ लाइफ़ को ख़तरा बता कर आदिवासियों के पशु चराने पर पाबंदी की माँग की गई थी

इस याचिका में कहा गया था कि जंगल में पालतू पशुओं के चरने से जंगली जानवरों को ख़तरा पैदा हो रहा है. यह जनहित याचिका साल 2020 में दायर की गई थी. इस सिलसिले में कोर्ट की मदद के लिए प्रिया देविदार को नियुक्त किया गया था.

प्रिया देविदार कंजरवेशन बायोलोजिस्ट (conservation biologist)  हैं. उन्होंने कोर्ट को बताया कि जंगल में पालतू पशुओं को बड़ी संख्या में चराया जाता है. इससे हिरण जैसे जानवरों के लिए जंगल में घास और वनस्पति कम हो जाती है.

उन्होंने कोर्ट को बताया कि जंगल में चरने वाले एक गाय या बैल को कम से कम 12 से 15 किलोग्राम घास की ज़रूरत होती है. इससे जंगल के जानवरों को घास कम पड़ सकती है. 

इसके अलावा कोर्ट को यह भी बताया गया कि जो पालतू पशु जंगल में चराए जाते हैं उनसे जंगली जानवरों में कई तरह की बीमारी और इंफ़ेक्शन फैल सकता है. जनहित याचिका में बताया कि पालतू जानवर जंगल में ऐसी बीमारियाँ फैला सकते हैं जो जंगल में तबाही मचा सकती हैं.

अदालत में यह दावा भी किया गया कि पशु चारने की अनुमति देने से जंगल में आग लगने का ख़तरा बढ़ जाता है. इस सिलसिले में जनहित याचिका में जंगल में आग लगने की 35 घटनाओं को आदिवासियों के पशु चराने की गतिविधि से जोड़ कर दिखाया गया है. 

इस जनहित याचिका में एक और मज़ेदार बात कही गई थी. इस याचिका में कहा गया कि पशुओं के गले में बंधी घंटी से जंगल में ध्वनि प्रदूषण फैलता है. 

इस केस में वन विभाग की तरफ़ से अदालत को बताया गया कि इस क्षेत्र में आदिवासी मुनाफ़े के लिए पशु पालते हैं. वो इन पशुओं का गोबर तक बेचते हैं. ये आदिवासी जैविक खेती की आड़ में जंगल में पशु चराने का अधिकार माँगते हैं.

इस पूरे मामले में आदिवासियों के पक्ष को कोर्ट ने मानने से इंकार कर दिया. कोर्ट ने साफ़ साफ़ कहा कि अगर पशु पालने हैं तो उसके लिए चारा खेतों में उगाएँ. 

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