Mainbhibharat

आदिवासी स्वशासन सती प्रथा से भी ख़तरनाक, राष्ट्रपति ने सालखन मुर्मू के ख़त का लिया संज्ञान

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आदिवासी नेता और पूर्व सांसद सालखन मुर्मू के पत्र का संज्ञान लिया है. इस पत्र में सालखन मुर्मू ने आदिवासियों के रूढ़िगत परंपराओं और नियमों में सुधार के लिए सुझाव दिए हैं. सालखन मुर्मू ने इस पत्र में जो बातें कहीं हैं वो निश्चित ही साहसिक बातें हैं. 

उन्होंने दावा किया है कि अगर उनके इन सुझावों पर कदम उठाए जाएँगे तो आदिवासी समाज कई तरह की बुराइयों से मुक्त हो जाएगा. इसके साथ ही आदिवासी इलाक़ों में पत्थलगड़ी, नक्सलवाद और अलग कोल्हान राष्ट्र जैसे मसलों से भी निपटने में आसानी होगी.

राष्ट्रपति ने उनके पत्र को आदिवासी मामलों के मंत्रालय को भेज दिया है.

इस पत्र में सालखन मुर्मू आदिवासी समुदायों में व्याप्त प्रथाओं को चिन्हित करते हुए, सुधार के सुझाव दिए हैं. उन्होंने जो बातें आदिवासी समाज के कस्टमरी लॉ या रूढ़िगत क़ानूनों के बारे में कहा है कि ये सती प्रथा जैसी बुराई हैं. 

उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि कस्टमरी लॉ आदिवासी समाज के लिए आत्मघाती हैं. 

उन्होंने कहा कि भारत सरकार को आदिवासी समुदायों की सामाजिक व्यवस्था के बदलाव में मदद करनी होगी. उन्होंने राजा राजमोहन राय के सुधारवादी आंदोलन का उदाहरण देते हुए कहा कि अगर उस समय अंग्रेज़ी शासन ने उन्हें सहयोग नहीं दिया होता तो सती प्रथा को समाप्त करना संभव नहीं था. 

उन्होंने कहा कि 1829 में सती प्रथा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया गया था. 

सालखन मुर्मू

डायन प्रथा और स्वशासन शक्तियों का दुरूपयोग

सालखन मुर्मू ने अपने पत्र में कहते हैं कि डायन प्रथा अंधविश्वास के साथ साथ स्वशासन की शक्तियों का दुरूपयोग और लालच का परिणाम है. उन्होंने कहा कि झारखंड, बंगाल, बिहार, ओडिशा (उड़ीसा), असम आदि प्रांतों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों और खासकर संताल समाज में यह एक बड़ी समस्या है. 

उन्होंने कहा कि यह अंधविश्वास से ज्यादा आदिवासी गांव समाज की व्याप्त स्वशासन शक्ति का दुरुपयोग, लोभ-लालच और विकृत मानसिकता का प्रतिफल है. 

डायन हिंसा की घटनाओं के पीछे घटित आदिवासी महिलाओं की हत्या, हिंसा, प्रताड़ना, निर्वस्त्र कर गांव में घुमाना, दुष्कर्म करना, मैला पिलाना आदि के खिलाफ अधिकांश शिक्षित-अशिक्षित पुरुष-महिला आदिवासी चुप रहते हैं. 

अधिकांश आदिवासी सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के अगुआ और आदिवासी स्वशासन के प्रमुख (माझी-परगना) आदि भी ऐसे घिनौने, हैवानियत से भरे अमानवीय कृतियों का विरोध करने की बजाय अप्रत्यक्ष रुप से सहयोग करते दिखाई पड़ते हैं.

उन्होंने कहा कि यह सब घटनाएँ मानवता, संविधान-क़ानून और न्याय पर हमला हैं. उन्होंने कहा है कि इस तरह की बुराइयों को दूर करने के लिए एक व्यापक सामाजिक राजनीतिक सहमति और सहयोग की ज़रूरत है. 

माझी-परगना व्यवस्था पर हमला

सलखान मुर्मू ने आदिवासी संताल समाज में माझी-परगना व्यवस्था पर आरोप लगाया है कि वो समाज को आधुनिक लोकतंत्र में हिस्सा नहीं लेने देती है. स्वशासन व्यवस्था का नारा है- हम जैसे थे वैसे ही रहेंगे (अबो दो सेदाय लेका गे)। समाज में राजनीति नहीं करेंगे (आबो दो non-political)। न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊंची ग्रामसभा अर्थात हम संविधान, कानून और संसद, विधानसभा से भी बड़े हैं.

हम पुलिस- प्रशासन और सरकार को नहीं मानेंगे आदि आदि. उन्होंने कहा है कि इस व्यवस्था का इस समाज पर इस हद तक प्रभाव है कि जो लोग जानते हैं कि यह ग़लत है उनमें भी साहस नहीं है कि वो इसके ख़िलाफ़ बोल सकें. 

सलखान मुर्मू के सुझाव

भारत सरकार एक उच्चस्तरीय कमीशन या कमेटी बनाकर वर्तमान आदिवासी स्वशासन व्यवस्था की जांच कर अविलंब सुधारात्मक कार्रवाई करें.

राजतांत्रिक और गुलामी को बढ़ाने वाली वर्तमान आदिवासी स्वशासन व्यवस्था को प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष प्रोत्साहित करनेवाले सभी संगठनों को चिन्हित कर बैन और दंडित किया जाए.  

गुणात्मक जनतांत्रिक रूप से चुने गए माझी- परगना आदि को सरकारी मान्यता मिले तथा उचित सरकारी भत्ता प्रदान किया जाए. किंतु वंशानुगत (राजतांत्रिक) व्यवस्था और गुलामी को आगे बढ़ाने वाले माझी- परगना आदि को भत्ता नहीं दिया जाए.

जिला पुलिस-प्रशासन आदि यदि आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के नाम पर चालू असंवैधानिक, गैर कानूनी, अमानवीय क्रियाकलापों को अपनी लापरवाही और संवेदनहीनता के कारण से रोकने में अक्षम होते हैं तो उन्हें दंडित किया जाए. मगर त्वरित सकारात्मक कार्यवाही करने वालों को यथोचित पुरस्कृत किया जाए. जिला पुलिस- प्रशासन बहुधा ऐसे मामलों को सामाजिक मामला बोलकर टाल देते हैं और मृतक माझी- परगाना के उत्तराधिकारी के रूप में बच्चों को भी माझी- परगाना आदि नियुक्त करने हैं. जो गलत है.

पांचवीं अनुसूची क्षेत्र यानि शेड्यूल एरिया में आदिवासी स्वशासन के प्रमुख (माझी- परगना, मानकी- मुंडा आदि) वंशानुगत हैं, जनतांत्रिक रूप से नहीं चुने जाते हैं. अंततः संविधान में 243 M 4(b) के तहत संशोधन हुआ और पेसा (PESA) पंचायत कानून -1996 शेड्यूल एरिया में भी अब 10 प्रदेशों में लागू है. जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 12 जनवरी 2010 के अपने ऐतिहासिक फैसले में संवैधानिक और जरूरी बताया है. अतः दिलीप सिंह भूरिया कमिटी रिपोर्ट इस वास्तविक वस्तुस्थिति को प्रमाणित करता है कि आदिवासी स्वशासन पद्धति राजतांत्रिक है, जनतांत्रिक नहीं. अतः  इसका गुणात्मक जनतंत्रीकरण सुधार अविलंब अनिवार्य है.

Exit mobile version