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संताल बेलबोरोन पूजा – संस्कृति और ज्ञान को आगे बढ़ाने की परंपरा है

झारखंड में संताल आदिवासी इन दिनों बेलबोरोन पूजा मना रहे हैं. बेलबोरोन पूजा संताल आदिवासी धरती को धरती के जीवों को कष्ट और बीमारियों से बचाने के लिए करते हैं. यह पूजा  आदिवासियों की ज्ञान परंपरा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने से भी जुड़ी है. 

संतालों में इस पूजा से एक महीने पहले समाज के बुजुर्ग और जानकार अपने समुदाय के नौजवानों को अपनी परंपरा और ज्ञान की जानकारी देते हैं. इस ज्ञान में अपनी सामाजिक धार्मिक आस्थाओं के अलावा परंपरागत तरीक़े से इलाज करने का ज्ञान देते हैं. 

यह ज्ञान सिर्फ़ थ्योरी में नहीं होता है बल्कि प्रेक्टिकल होता है. इस दौरान बुजुर्ग लोग युवाओं को  पहाड़ और जंगल ले जाते हैं. वहाँ पर उन्हें जड़ी-बूटी के खोज और पहचान के तरीक़े समझाए जाते हैं.  इसके साथ ही यह बताया जाता है कि जड़ी-बूटी उपयोग किन बीमारियों में कैसे किया जाता है. 

बेलबोरोन पूजा के अवसर पर अराध्य देवों को मुर्गे की बलि दी जाती है. इस पूजा के बाद ग्रामीण अपने गांव में दशांय नृत्य और गीत करते हैं. उसके बाद चार दिन लगातार गुरु-शिष्य गुरु बोंगाओ (गुरु देवता) को लेकर गांव-गांव घुमाते हैं.  

दशांय नृत्य और गीत के माध्यम ठकुर (इष्ट देव) और ठकरन (इष्ट देवी) का गुणगान गाते हैं और साथ- साथ भक्तों के घर में सुख- शांति, धन आदि के लिये पूजा करते हैं. इसके उपलक्ष्य में इन लोगों को दान स्वरूप मकई, बाजरा या रुपये-पैसे मिलते हैं. 

दशांय नृत्य में कई पुरुष महिला का पोशाक पहनते हैं या उनकी तरह व्यवहार करते हैं. इसका मुख्य कारण है कि वे सभी ठकरन (इष्ट देवी) का सपाप (आभूषण और वस्त्र) को प्रतिकात्म पहनते हैं. बेलबोरोन पूजा के अंतिम दिन अपने गांव में दशांय नृत्य और गीत करते हैं और प्रसाद रूप जो अनाज दान में मिले हैं, उसका वो खिचड़ी बना कर खाते हैं.

इस तरह संतालों का बेलबोरोन पूजा गुरु-शिष्य का अटूट संबंध का पूजा है. जो पाप नहीं करने, धार्मिक बने रहने, समाज को रोगमुक्त बनाये रखने, परंपरागत जड़ी-बूटी चिकित्सा विधि को जीवित रखने, परंपरागत नाच गाने को बचाये रखने, संस्कृति, धर्म और प्रकृति को बचाए रखने और खुश रहने का संदेश देता है.

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