तमिलनाडु में वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act, 2006) के तहत मालिकाना हक के दावों को स्वीकार करने की प्रक्रिया में सुधार की कोशिश की जा रही है. आदिवासी कल्याण विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि ज्यादातर अस्वीकृतियां उपमंडल स्तर की समितियों (Sub Divisional Level Committees- SDLCs) में हैं.
लेकिन अब आदिवासी कल्याण विभाग ने स्वीकृति दरों में सुधार के लिए एक सीरीज शुरू की है. 6 सदस्यीय एसडीएलसी ग्राम सभाओं के प्रस्तावों और दावों की सत्यता की जांच करता है और फिर जिला स्तरीय समिति को प्रस्तावित वन अधिकारों के ड्राफ्ट रिकॉर्ड के साथ दावों को आगे बढ़ाता है. इसके बाद ज़िला स्तर पर अंतिम निर्णय लिया जाता है.
आदिवासी कल्याण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया , “हमने बड़ी संख्या में अस्वीकृतियों का संज्ञान लिया है, विशेष रूप से एसडीएलसी स्तर पर, साथ ही जागरूकता बढ़ाने और स्वीकृति दर में सुधार करने की योजना बनाई गई है. पहले कदम के रूप में, हम तिरुचि में शनिवार और रविवार को ग्राम वन समितियों के सदस्यों, एसडीएलसी के सदस्यों और जिला-स्तरीय समितियों और अन्य जैसे राजस्व अधिकारियों और वन रेंजरों के लिए दो दिवसीय ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित कर रहे हैं.”
इसी तरह की एक बैठक कोयंबटूर में भी होनी है, जिसमें पश्चिमी जिलों के अधिकारी भाग लेंगे. अधिकारी ने कहा “अधिनियम के बाद यह पहली बार है कि एक व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. इसके बाद अस्वीकृति दरों पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी.”
एकता परिषद (भूमि अधिकारों के लिए एक जन आंदोलन) के स्टेट कोऑर्डिनेटर एस थानाराज के मुताबिक, एसडीएलसी में अस्वीकृति की ज्यादा संख्या मुख्य रूप से टालमटोल और जागरूकता की कमी के संयोजन के कारण है.
उन्होंने कहा, “एसएलडीसी की भूमिका में आवेदकों के दावे में मदद करने के लिए किसी भी आवश्यक सहायक राजस्व या अन्य सरकारी दस्तावेजों को निकालना शामिल है. अगर वे ऐसा करने में असमर्थ हैं तो बड़ों के बयान या जमीन पर कब्जे के भौतिक साक्ष्य का उपयोग किया जा सकता है. अगर वे आवेदनों से असंतुष्ट हैं, तो उन्हें आवेदनों को सीधे खारिज करने के बजाय कारणों के साथ ग्राम सभा को वापस लिखना होगा.”
वन अधिकार अधिनियम, 2006
आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था और एक लम्बी अवधि के बाद आख़िरकार केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया.
वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति के कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था, जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) शामिल हो.
हालांकि, आदिवासी इलाकों में रहने वाले या वहां काम करने वाले लोग जानते है कि यह कानून होने के बावजूद हकीकत में अक्सर इसका पालन ठीक से नहीं होता है. कई बार उस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को पता ही नहीं चलता कि कोई प्रोजेक्ट उनके क्षेत्र में आने वाला है और फर्जी हस्ताक्षर लेकर ग्राम सभा से झूठी अनुमति मिल जाती है. कई बार ग्राम सभा अध्यक्ष, सरपंच व अन्य क्षेत्रीय प्रभावशाली लोग पैसा खा लेते हैं या दबाव में आ जाते हैं.
ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां किसी परियोजना को अनुमति कागज पर मिल गई है पर स्थानीय लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है. जब असल में वो काम शुरू करके जंगल काटने लगते हैं तब आदिवासियों को उस परियोजना या प्रोजेक्ट के बारे में पता चलता है.
आदिवासियों ने कई दशकों तक अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, नतीजा वन अधिकार क़ानून-2006 आया. अब नया वन संरक्षण नियम 2022, सालों के उस संघर्ष और वनाधिकारों को एक झटके में ख़त्म कर देगा. इससे देश में पहले से चल रहे आदिवासियों के विस्थापन और बचे-खुचे प्राकृतिक जंगलों के खात्मे की प्रक्रिया और तेज़ होगी. 28 जून 2022 को केंद्र सरकार ने वन संरक्षण कानून 1980 के तहत, वन संरक्षण नियम-2022 की अधिसूचना जारी की है.