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आदिवासी महिला को अस्पताल ले जाने की जद्दोजहद

आदिवासी इलाके में लोग कई बार अस्पताल जाने से डरते हैं. ऐसा ही एक मामला तमिलनाडू के बर्गूर से सामने आया है जहां एक गर्भवती आदिवासी महिला को समझाने के लिए स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को काफी मशक्कत करनी पड़ी.

एरोड ज़िले की बर्गूर पहाड़ियों में रहने वाली 21 साल की मल्लिका पाँच महीने की गर्भवती है. लेकिन जब डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी उसे इलाज के लिए बुलाने जाते तो वह हर बार किसी न किसी बहाने से बच निकलती.

पिछले दो महीने में उसने लगातार 12 बार डॉक्टरों से मिलने को टाल दिया.

मल्लिका को एनीमिया यानी खून की कमी थी, जो गर्भावस्था में और भी खतरनाक हो जाती है.

पहले भी एक बार गर्भावस्था में उसका गर्भपात हो चुका था. इस बार हालत और नाज़ुक थी.

डॉक्टरों ने पहले भी उसे खून चढ़ाया था लेकिन इलाज के बाद वह फिर पहाड़ियों में लौट गई और अस्पताल जाने से साफ मना कर दिया.

डॉक्टर ने खुद समझाया

जब हालत गंभीर लगने लगी तो 13वीं बार डॉक्टरों की टीम फिर से मल्लिका के घर पहुंची.

इस बार उनके साथ खुद ज़िला चिकित्सा अधिकारी डॉ. शक्ति कृष्णन भी थे. यह टीम ओंथनै मलाई गांव तक पहुंची, जहां मल्लिका उस समय अपनी मां के घर पर थी.

मल्लिका ने एक बार फिर जाने से इनकार कर दिया. वह ज़मीन पर बैठ गई और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी.

टीम ने जबरदस्ती नहीं की. डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी शांतिपूर्वक उसे चार घंटे तक समझाते रहे. टीम ने समझाया कि गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए, अपने स्वास्थ्य के लिए और पहले हुए गर्भपात से सबक ले.

इलाज के बाद घर वापसी

कई घंटे की बातचीत और समझाने के बाद मल्लिका ने शर्त रखी. अगर उसी दिन सभी जांच हो जाएंगी और मुझे वापस घर छोड़ देंगे तो मैं चलने को तैयार हूं.

टीम ने यह भरोसा दिया और मल्लिका को आनथियूर सरकारी अस्पताल ले जाया गया.

वहां पर उसका ब्लड टेस्ट, स्कैन और जरूरी जांच हुई.

उसे इलाज के साथ-साथ दवाएं भी दी गईं. डॉक्टरों की टीम ने उसे उसी दिन वापस गांव छोड़ा.

आदिवासी इलाकों में इलाज से डरना अब भी बड़ी चुनौती

बर्गूर हिल्स के करीब 30 गांवों में अब कई महिलाएं संस्थागत प्रसव (यानी अस्पताल में बच्चा पैदा करना) को अपनाने लगी हैं. लेकिन कुछ अब भी परंपराओं, डर और अस्पताल के अनुभवों को लेकर शंका रखती हैं.

मल्लिका का मामला बताता है कि केवल इलाज की सुविधा पहुंचाना काफी नहीं है, जब तक भरोसा नहीं बनता, तब तक लोग कदम आगे नहीं बढ़ाते.

स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, माँ-बच्चे की जांच में हुई एक चूक भी उनकी जान ले सकती है. इसलिए अधिकारी अब गांवों में जागरूकता बढ़ाने और जनसंपर्क के ज़रिए स्वास्थ्य सेवाओं को लोगों तक पहुँचाने के नए रास्ते खोजने की बात कर रहे हैं.

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