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तेलंगाना सरकार की पोडू भूमि पर घोषणा और आदिवासी समुदायों का संघर्ष

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने शुक्रवार को घोषणा की कि राज्य भर के आदिवासियों के बीच 11.5 लाख एकड़ पोडू भूमि का वितरण महीने के अंत तक शुरू हो जाएगा.

उन्होंने राज्य विधान सभा को बताया कि उनकी सरकार इन जमीनों को जोतने वाले आदिवासियों को न सिर्फ ‘पट्टा’ देगी बल्कि बिजली की आपूर्ति भी करेगी और किसानों के लिए निवेश सहायता योजना और रायथु बंधु के लाभों का विस्तार करेगी.

हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद कोई पोडू भूमि नहीं रहेगी और अगर इसका लाभ पाने वालों ने वन भूमि पर कब्जा करने की कोशिश की तो उनके पट्टे रद्द कर दिए जाएंगे.

मुख्यमंत्री ने कहा कि जिन लोगों को पट्टा दिया जा रहा है उनसे एक लिखित वचन लिया जाएगा कि वे वन भूमि पर आगे कोई दावा नहीं करेंगे. वचनपत्र पर ग्राम समितियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के भी हस्ताक्षर लिए जाएंगे.

लाभ पाने वाले लोगों को वन रक्षक के तौर पर काम करने के लिए भी कहा जाएगा और उनसे इस संबंध में लिखित तौर पर वायदा लिया जाएगा.

मुख्यमंत्री केसीआर ने कहा कि चालू वर्ष के दौरान पोडू भूमि के वितरण के साथ यह मुद्दा हमेशा के लिए बंद हो जाएगा और सरकार वनों की रक्षा के लिए दृढ़ता से काम करेगी. उन्होंने कहा कि जंगलों की सीमा तय करने के बाद राज्य सरकार सशस्त्र जवानों की पेट्रोलिंग की व्यवस्था करेगी.

उन्होंने कहा, “इस मुद्दे का अंत होना चाहिए. सरकार एक गज वन भूमि का भी अतिक्रमण नहीं होने देगी क्योंकि अगर हम हरित आवरण खो देते हैं तो पूरे समाज को नुकसान होगा.”

इसके अलावा, मुख्यमंत्री ने यह भी घोषणा की कि सरकार भूमिहीन आदिवासियों के लिए दलित बंधु योजना की तर्ज पर गिरिजन बंधु शुरू करेगी.

वहीं प्रश्नकाल के दौरान एक प्रश्न का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने गुट्टी कोया जनजाति का जिक्र किया, जिसके सदस्य कथित तौर पर पिछले साल नवंबर में भद्राद्री कोठागुडेम जिले में एक वन अधिकारी की हत्या में शामिल थे. केसीआर ने कहा, “गुट्टी कोया हमारे राज्य से नहीं हैं. वे छत्तीसगढ़ से आए थे. अगर उन्हें नहीं रोका गया तो वे जंगलों को नष्ट कर देंगे.”

उन्होंने कहा कि पुलिस और वन कर्मियों को आदिवासियों पर हमला नहीं करना चाहिए जबकि आदिवासियों को संयम बरतना चाहिए. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि अगर कुछ लोग कानून हाथ में लेकर पुलिस और जंगल पर हमला करते हैं तो सरकार चुप नहीं बैठेगी.

उन्होंने आरोप लगाया कि कुछ उच्च जाति के लोग आदिवासी महिलाओं से शादी कर रहे हैं ताकि उनके नाम पर वन भूमि का अतिक्रमण किया जा सके. खम्मम जिले में ऐसे लोगों के पास 20-30 एकड़ जमीन है.

पोडू भूमि विवाद

पोडु खेती आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली खेती की एक पारंपरिक प्रणाली है, जिसके तहत फसल लगाने के लिए हर साल जंगल के अलग-अलग हिस्सों को जलाकर साफ किया जाता है. वे एक मौसम में भूमि के एक टुकड़े पर फ़सल उगाते हैं और अगले मौसम में अलग-अलग स्थान पर चले जाते हैं.

लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद के कारण हाल के वर्षों में राज्य में कई जगहों पर आदिवासियों और वन कर्मचारियों के बीच झड़पें हुईं.

इस मामले पर कहा गया कि कुछ राजनीतिक दलों ने राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए इस मुद्दे को जीवित रखा. लेकिन केसीआर ने कहा कि उनकी सरकार इसे समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है.

लंबे समय से लंबित मुद्दे को हमेशा के लिए निपटाने की आवश्यकता को महसूस करते हुए, राज्य सरकार ने 2021 में पोडू भूमि का दावा करने वाले पात्र लाभार्थियों से आवेदन प्राप्त करने के लिए कवायद शुरू करने का फैसला किया.

पोडू भूमि की पहचान पिछले साल किए गए एक राज्यव्यापी सर्वेक्षण के दौरान की गई थी. अधिकारियों को आदिवासियों और गैर-आदिवासियों दोनों से 4 लाख से अधिक दावे प्राप्त हुए.

आदिवासियों और अन्य वनवासियों का दावा है कि पोडू भूमि पर वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (आरओएफआर अधिनियम) के तहत गारंटीकृत उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है.

RoFR अधिनियम के तहत पट्टा जारी करने के लिए सरकार को 2,845 ग्राम पंचायतों में 4.14 लाख दावे प्राप्त हुए. आदिवासी कल्याण मंत्री सत्यवती राठौर के अनुसार, 68 प्रतिशत आवेदक आदिवासी हैं और बाकी 32 प्रतिशत गैर-आदिवासी हैं. आदिवासी और गैर-आदिवासी किसानों द्वारा 12.49 लाख एकड़ वन भूमि के लिए दावा किया गया था.

मुख्यमंत्री ने पहले सुझाव दिया था कि जंगल के भीतर पोडू की खेती में शामिल आदिवासियों को खेती के लिए पास में एक वैकल्पिक सरकारी भूमि दी जानी चाहिए. और अगर कोई सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है तो उन्हें वनभूमि की बाहरी सीमा पर भूमि उपलब्ध कराई जाए.

सरकार की ताज़ा घोषणा बेशक एक उम्मीद जगाती है कि पोडू भूमि से जुड़े विवाद का एक न्यायसंगत हल हासिल हो सकता है. क्योंकि यह मसला आदिवासी इलाक़ों में सिर्फ़ न्याय व्यवस्था का मामला नहीं है.

यह मुद्दा आदिवासियों की आजीविका से जुड़ा हुआ मुद्दा भी है.

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