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आदिवासी छात्रों की संख्या घटती-बढ़ती क्यों नहीं है, हैरान है संसदीय समिति

आदिवासी छात्रों को प्री मैट्रिक स्कॉलशिप के मामले में मिली जानकारी हैरानी में डालने वाली है. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से जुड़ी संसदीय स्थाई समिति ने यह कहा है. दरअसल संसदीय स्थाई समिति ने आदिवासी मंत्रालय से जुड़ी एक रिपोर्ट में यह बात कही है.

इस कमेटी का कहना है कि जब उसने 2020-21, 2021-22 और 2022-23 के लिए प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप के आंकड़े देखे तो पाया कि इन आंकड़ों में कोई ख़ास फर्क नहीं है. यानि पिछले दो साल और अगले एक साल के टारगेट को देखा जाए तो प्री मैट्रिक की स्कॉलरशिप की संख्या लगभग वही रखी गई है.

संसद की स्थाई समिति का मानना है कि यह संख्या बढ़नी चाहिए थी. समिति का कहना है कि इस स्कीम का जो मकसद है उसके हिसाब से स्कॉलरशिप की संख्या बढ़ाई ही जानी चाहिए थी. आदिवासी मंत्रालय ने यह स्कीम स्कूलों में आदिवासी छात्रों की ड्रॉपआउट रेट कम करने के मकसद से शुरू की थी. 

संसद की स्थाई समिति ने यह देखा कि साल 2019-20 में कुल 14.51 हज़ार आदिवासी छात्रों को प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप दी गई थी. इसके बाद 2021-22 में यह स्कॉलरशिप 12.7 लाख आदिवासी छात्रों को मिली है. 

स्टैंडिंग कमेटी ने इस मामले में अपनी राय देते हुए कहा है कि ऐसा लगता है कि आदिवासी मंत्रालय ने देश में आदिवासी आबादी से जुड़े सही सही आंकड़ों का पता लगाए बिना ही यह योजना शुरू की है. कमेटी का कहना है कि अगर इस स्कीम से जुड़ी जानकारी की पड़ताल की जाए तो लगता है कि आदिवासी छात्रों की संख्या में एक ठहराव है. 

कमेटी ने यह भी पाया है कि इस योजना के तहत कई राज्यों में तो एक पैसा भी ख़र्च नहीं किया गया है. मसलन अरूणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, मेघालय, पुद्दुचेरी, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में इस योजना के तहत ख़र्च शून्य दिखाया गया है. 

कमेटी ने आदिवासी मंत्रालय से कहा है कि उसे यह पता लगाना ज़रूरी है कि आदिवासी छात्रों की संख्या में यह ठहराव नज़र क्यों आ रहा है. कमेटी ने आदिवासी मंत्रालय से कहा है कि यह सूरत बदलनी चाहिए और मंत्रालय को कोशिश करनी चाहिए की सभी आदिवासी छात्रों को इस योजना का लाभ मिल सके. 

हाल ही में राज्य सभा में आदिवासी मंत्रालय को बजट मे मुहैया कराई गई राशी पर भी बहस हुई थी. इस बहस के दौरान यह बात उठी थी कि आदिवासी मंत्रालय को बजट में जो पैसा दिया जाता है उसे बाद में घटा दिया जाता है.

इस बहस में यह तथ्य भी सामने आया था कि आदिवासी मंत्रालय पिछले साल घाटए गए बजट की राशी भी पूरी तरह से खर्च नहीं कर पाया था. इस बहस में यह भी पता चला था कि आदिवासी इलाकों में एकलव्य मॉडल स्कूलों की घोषणा तो हो जाती है लेकिन उनमें से ज़्यादातर चालू ही नहीं हो पाते हैं.

इसके अलावा जो स्कूल चालू हो भी जाते हैं उनमें शिक्षा की गुणवत्ता चिंता की बात है.

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