Site icon Mainbhibharat

सिमलीपाल टाइगर रिजर्व की आग में झुलस सकता है आदिवासी रोज़गार

ओडिशा के मयूरभंज ज़िले में सिमलीपाल टाइगल रिजर्व की आग 15 दिन बाद भी काबू में नहीं आई है. बताया जा रहा है कि अब आग इस टाइगर रिजर्व के कोर एरिया तक पहुंच गई है.

इस आग से जंगल की वनस्पति और जीवों को काफ़ी नुकसान का ख़तरा पैदा हो गया है.


इस आग ने इस जंगल के आस-पास बसे आदिवासियों को भी परेशान कर दिया है. यहां पर संताल, भूमिजा, गोंड और हो के अलावा और कई बड़े आदिवासी समुदाय हैं.

इन आदिवासी समुदायों की जीविका में जंगल से मिलने वाले वन उत्पाद काफी अहम हैं.

लेकिन ख़ास तौर से 3 पीवीटीजी आदिवासी समूहों के लेकर चिंता बढ़ गई है. सिमलीपाल जंगल की पहाड़ी ढलानों और आस-पास मांकिडिया, हिल खड़िया और लोधा आदिवासी रहते हैं.

इन आदिवासियों की जीविका लगभग पूरी तरह से इन जंगलों से ही चलती है.

ओडिशा के मयूरभंज जिले की कुल आबादी का आधे से ज़्यादा, लगभग 58 प्रतिशत आदिवासी है.

मयूरभंज में भी देश के बाक़ी आदिवासी इलाक़ों की तरह ही अलग अलग मौसम में कई तरह के फल-फूल और पत्ते आदिवासी जमा करते हैं.

आमतौर पर बड़े आदिवासी समूहों के लोग जंगल से मिलने वाले उत्पाद बाज़ार में बेचते भी हैं.

लेकिन पीवीटीजी समुदायों के आदिवासी अपने खाने के लिए ही वन उत्पाद जमा करते हैं.

लोधा आदिवासी अभी भी रोज़ जंगल जाते हैं

जंगल की इस आग के लिए वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों को ही दोष देते हैं.

इन अधिकारियों का कहना है कि आदिवासी जंगल से महुआ जमा करने के लिए सूखे पत्तों में आग लगा देते हैं.
जबकि आदिवासियों का कहना है कि महुआ के फूल का तो मौसम ही अभी नहीं है.

इसलिए जंगल के अधिकारी ग़लत आरोप लगा रहे हैं.

आदिवासियों की जीविका के लिए जंगल बेहद ज़रूरी है. आमतौर पर आदिवासी सिमलीपाल के जंगलों से जनवरी से मई के महीने तक कई तरह का साग,आम, महुआ, इमली, ख़जूर और साल के पत्ते जमा करते हैं.


जून-जुलाई के महीने में केंदु, कटहल और चिरोंजी के अलावा कई और फल ये आदिवासी जमा करते हैं.
जबकि अगस्त से दिसंबर के बीच में इन जंगलों मे कई तरह की मशरूम मिलती है.

Exit mobile version