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गरीबी साबित करने के लिए नहीं हैं दस्तावेज़, इन जनजातियों को कैसे मिले बीपीएल का लाभ

आजादी के 74 साल बाद भी ज्यादातर गैर-अधिसूचित और घुमंतू जनजातियों (DNT) के पास अभी भी जन्म प्रमाण पत्र, अधिवास प्रमाण पत्र और जाति कार्ड नहीं हैं. साथ ही उन्हें न ही कोई स्वास्थ्य बीमा लाभ और बीपीएल कार्ड मिला हुआ है. इतना ही नहीं इससे उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना मुश्किल हो जाता है.

राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर, वडोदरा और पांच अन्य संगठनों द्वारा डिनोटिफाइड समुदायों पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक अभी भी बच्चे घर पर ही पैदा होते हैं. इस वजह से इन परिवारों में सिर्फ 19.3 फीसदी के सभी सदस्यों के पास जन्म प्रमाण पत्र है. 

जबकि 58 फीसदी परिवारों में सिर्फ परिवार के कुछ सदस्यों के पास ही है और 22.8 फीसदी घरों में परिवार के किसी भी सदस्य के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं है.

इन लोगों के लिए जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया बहुत मुश्किल है. अनपढ़ माता-पिता के लिए खासतौर पर ये और मुश्किल हो जाता है. जन्म प्रमाण पत्र नहीं होने का मतलब बच्चों को स्कूलों में प्रवेश पाने में कठिनाई होती है. 

वहीं मनरेगा के लिए तीन राज्यों में अलग अलग समुदायों के पास जॉब कार्ड की उपलब्धता के विश्लेषण से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन 42.2 फीसदी डीएनटी समुदायों के पास जॉब कार्ड नहीं हैं. 

मध्य प्रदेश में सर्वेक्षण किए गए पारधी समुदाय में यह प्रतिशत बहुत अधिक है जो कि 85.2 फीसदी है. बछड़ा और कालबेलिया समुदायों में क्रमशः 53.2 फीसदी और 54.8 फीसदी के पास जॉब कार्ड नहीं हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पारधी अपराध के कलंक के चलते गाँव से बाहर रहने को मजबूर हैं. क्योंकि वो गाँव में नहीं रहते और आजीविका की तलाश में दूसरी जगहों पर पलायन करते रहते हैं ऐसे में उनमें से कई 2011 में मनरेगा के तहत शामिल होने के लिए सर्वेक्षण से चूक गए थे. जबकि देह व्यापार में लिप्त कंजर और बेदिया परिवार भी मनरेगा के कामों में भाग लेने से बचते हैं.

यही हाल बीपीएल कार्ड का भी है. सर्वे से पता चलता है कि बिना बीपीएल कार्ड वाले डीएनटी समुदायों का औसत प्रतिशत 51.7 फीसदी है. डेटा से पता चलता है कि पारधी समुदाय के 75.4 फीसदी सदस्यों के पास बीपीएल कार्ड नहीं हैं उसके बाद कंजर और बेदिया हैं.

भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर, वडोदरा के ट्रस्टी और रिपोर्ट के समन्वयक मदन मीणा जो राजस्थान में इस सर्वेक्षण का हिस्सा थे उन्होंने कहा, “खानाबदोश स्वभाव के चलते इन समुदायों के अधिकांश सदस्यों को कोई दस्तावेज नहीं मिल सका. वोट पाने के लिए स्थानीय नेताओं ने इनके वोटर आईडी कार्ड और आधार कार्ड बनवाए हैं. लेकिन यह पाया गया है कि कई लोग गलत जानकारी देते हैं. दशकों के कलंक, समाज और अधिकारियों द्वारा उपेक्षा ने इन समुदायों को दयनीय परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया है.”

इन समुदायों के लिए एक बड़ा झटका जाति प्रमाण पत्र की कमी है जो उन्हें आरक्षण या किसी अन्य सरकारी योजनाओं में लाभ प्राप्त करने से रोकता है. 

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