Mainbhibharat

कर्नाटक के 6 लाख से ज़्यादा आदिवासी परिवारों के घरों में नहीं है लैट्रिन, 68 हज़ार परिवार टूटे घरों में रहते हैं

कर्नाटक में कम से कम 15 आदिवासी समुदाय हैं जो अभी भी अपने परंपरागत तरीक़े से बनाए गए घरों में ही रहते हैं. इन आदिवासी समुदायों में जेनू कुरुबा (Jenu Kuruba) और कोरगा (Koraga) भी शामिल है. 

ये दो आदिवासी समुदाय विशेष जनजाति समूह (PVTG) में रखी गई हैं. इसके अलावा सोलिगा (Soliga),  यरावा (Yarana), कडु कुरुबा (Kadu Kuruba), सिद्दी (Siddi) जैसे समुदायों सहित 15 आदिवासी समूहों के घरों के बारे में सरकार ने यह जानकारी दी है. 

सरकार ने बताया है कि कर्नाटक में कुल 9 लाख 36 हज़ार 995 आदिवासी परिवार हैं जो पारंपरिक घरों में रहते हैं. इन घरों में से लगभग 59 हज़ार घर ऐसे हैं जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं. यानि ये घर रहने लायक़ नहीं माने जा सकते हैं. 

इनमें से क़रीब 4 लाख घर हैं जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये घर रहने लायक़ नहीं हैं. जबकि क़रीब 4.68 लाख घर हैं जो अच्छी अवस्था में हैं. लेकिन आदिवासियों के घरों के बारे में यह जो जानकारी दी गई है, वह कम से कम 10 साल पुरानी है. 

कर्नाटक में आधे से ज़्यादा घरों में शौचालय नहीं हैं

आदिवासी मामलों से जुड़े जनजातीय कार्य मंत्रालय ने यह जानकारी लोक सभा में दी है. इस जवाब में मंत्रालय ने बताया है कि जवाब में जो जानकारी दी गई है वह 2011 की जनगणना पर आधारित है. 

इस जवाब में आगे जानकारी दी गई है कि कुल 9,36,995 आदिवासी परिवारों के घरों में से कम से कम 6,68,105 घरों में शौचालय/लैट्रिन नहीं है. 

कर्नाटक राज्य में आदिवासी बच्चों की शिक्षा का भी हाल बहुत अच्छा नहीं है. सर्व शिक्षा अभियान के आँकड़े दिखाते हैं कि प्राइमरी स्तर पर ही क़रीब 1.5 प्रतिशत ड्रॉप आउट रेट है. अपर प्राइमरी स्तर पर ड्रॉप आउट रेट 3.65 प्रतिशत है. आदिवासी लड़कियों में ड्रॉप आउट रेट 4 प्रतिशत से भी ज़्यादा है. 

कर्नाटक में आधे से भी कम आदिवासी परिवार हैं जिनके पास रहने को अच्छे घर हैं

केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के घर, घर में शौचालय, स्कूल से आदिवासी बच्चों के ड्रॉप आउट रेट पर गोल मोल जवाब दिया है. 

केन्द्र ने दावा किया है कि आदिवासियों के लिए अलग-अलग योजनाओं के मद में कर्नाटक राज्य को 19,802 लाख रुपये दिए गए हैं. 

इसमें विशेष आदिम आदिवासी समुदायों यानि पीवीटीजी के विकास योजनाओं के लिए अलग से पैसा दिया गया है. लेकिन यह नोटिस किया गया है कि जनजातीय मंत्रालय आमतौर पर आदिवासियों से जुड़े सवालों पर पुराने आँकड़े पेश कर रहा है. 

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि राज्यों से ही उसे यह आँकड़ा मिलता है. लेकिन क्या केन्द्र सारी ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाल कर बरी हो सकता है? हाल ही में जनजातीय मंत्रालय ने आदिवासियों में पलायन पर एक पोर्टल चालू किया है. 

यानि इस मसले पर केन्द्र ने यह फ़ैसला किया है कि वो आदिवासियों में पलायन के मसले पर सीधा नज़र रखेगा. 

क्या इस तरह के कदम बाक़ी मसलों पर संभव नहीं हैं?

Exit mobile version