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हज़ारों आशा कार्यकर्ता आदिवासी भारत को कोविड से बचा रही हैं

कर्नाटक-केरल सीमा पर रहने वाले आदिवासियों की सभी स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलों का समाधान ढूंढने का पहला ज़िम्मा 32 साल की एक आशा कार्यकर्ता के पास है. सुशीला सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली और ज़मीनी स्तर पर लोगों के बीच एक बेहद महत्वपूर्ण कड़ी हैं.

उनकी अहमियत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मैसूरु में कोरोनोवायरस के मामलों में भारी वृद्धि के बावजूद सुशीला के प्रयासों ने तीन आदिवासी बस्तियों – गोलुरु, बल्ले और आनेमाला – को इस बीमारी से अब तक बचाकर रखा है.

मैसूर के एचडी कोटे तालुक के डीबी कुप्पे ग्राम पंचायत में रहने वाली सुशीला तीन बच्चों की मां हैं. वह अपने बच्चों के साथ गोलुरु में एक छोटी सी झोपड़ी में रहती हैं.

इनके घर तक भले ही अभी तक बिजली की आपूर्ति नहीं है, लेकिन सुशीला खुद आदिवासी परिवारों के लिए प्रकाश की एक किरण हैं. सुशीला अपने घर में रोशनी के लिए सरकार द्वारा दिए जाने वाले एक लीटर मिट्टी के तेल पर निर्भर हैं, ताकि वो घर पर लालटेन जला सकें.

कोविड का प्रसार शुरु होने के बाद से ही वो आदिवासियों के बीच अथक रूप से काम कर रही हैं. अपनी मुश्किलों की आढ़ में छुपने के बजाय वो कोविड महामारी के ख़िलाफ़ युद्ध में सबसे आगे खड़ी हैं.

आशा कार्यकर्ताओं पर शिशु टीकाकरण और गर्भवती महिलाओं की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी है

जंगल में 15 से 20 किलोमीटर का सफ़र रोज़ तय करना, जंगली जानवरों का सामना करना, आदिवासी बस्तियों का दौरा करना, और लोगों को कोरोनावायरस के बारे में जागरुक करना, आदिवासी भारत में काम करने वाली सुशीला जैसी हज़ारों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की दिनचर्या ऐसी ही होती है.

इसके अलावा यह लोग अपना प्राइमरी काम भी नहीं भूलते हैं – इलाक़े के शिशुओं का टीकाकरण और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की जाँच. देशभर के हज़ारों ऐसे स्वास्थ्य कार्यकर्ता अच्छी स्वास्थ्य प्रथाओं को लगातार बढ़ावा भी देते हैं.

मोबाइल फ़ोन इन आशा कार्यकर्ताओं के लिए किसी लाइफ़लाइन से कम नहीं है. लेकिन जब घर पर बिजली न हो तो फ़ोन को चार्ज करने के लिए सुशीला पड़ोसी गांव तक 10 किलोमीटर पैदल यात्रा करती हैं. ज़ाहिर है लोगों ने उन्हें ‘अम्मा’ मान लिया है, और प्यार से उन्हें ‘सुशीलम्मा’ कहते हैं.

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